Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

Previous | Next

Page 381
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लिंगपाहुड] /३५७ अर्थ:--जो लिंग धारण करके ईर्यापथ शोधकर चलना था उसमें शोधकर नहीं चले, दौड़ता चलता हुआ उछले, गिर पड़े, फिर उठकर दौड़े और पृथ्वी को खोदे, चलते हुए ऐसे पैर पटके जो उससे पृथ्वी खुद जाय, इसप्रकार से चले सो तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है।। १५ ।। आगे कहते हैं कि जो वनस्पति आदि स्थावर जीवोंकी हिंसा से कर्म बंध होते है उसको न गिनता स्वच्छंद होकर प्रवर्तता है, वह श्रमण नहीं है:--- बंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि। छिंदहि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१६।। बंधं नीरजाः सन् सस्यं खंडयति तथा च सुधामपि। छिनत्ति तरुगणं बहुश: तिर्यग्योनि: न सः श्रमणः।। १६ ।। अर्थ:--जो लिंग धारण करके वनस्पति आदि की हिंसा से बंध होता है उसको दोष न मान कर बंध को नहीं गिनता हुआ सस्य अर्थात् अनाज को कूटता है और वैसे ही वसुधा अर्थात् पृथवी को खोदता है तथा बारबार तरुगण अर्थात् वृक्षों के समुह को छेदता है, ऐसा लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है। ___ भावार्थ:--वनस्पति आदि स्थावर जीव जिनसूत्र में कहे हैं और इनकी हिंसासे कर्मबंध होना भी कहा है उसको निर्दोष समझता हुआ कहता है कि---इसमें क्या दोष है ? क्या बंध है ? इसप्रकार मानता हआ तथा वैद्य-कर्मादिक के निमित्त औषधादिक को, धान्यको, पृथ्वी को तथा वृक्षोंको खंड़ता है, खोदता है, छेदता है वह अज्ञानी पशु है, लिंग धारण करके श्रमण कहलाता है वह श्रमण नहीं है।। १६ ।। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके स्त्रियों से राग करता है और परको दूषण देता है वह श्रमण नहीं है:--- जे अवगणीने बंध, खांडे धान्य, खोदे पृथ्वीने, बहु वृक्ष छेदे जेह, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छ। १६ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418