Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 380
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३५६ ] [अष्टपाहुड बैठकर खाते हैं, इसमें बटवारे में सरस, नीरस, आवे तब परसपर कलह करते हैं और उसके निमित्त परस्पर ईर्षा करते हैं, इसप्रकार की प्रवृत्ति करें तब कैसे धमण हुए ? वे जिनमार्गी तो हैं नहीं, कलिकाल के भेषी हैं। इनको साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं।। १३ ।। आगे फिर कहते है:--. गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं। जिणलिंग धारंतो चोरेण व होइ सो समणो।।१४।। गृहणाति अदत्तदानं परिनिंदामपि च परोक्षदूषणैः। जिनलिंगं धारयन् चौरेणेव भवति सः श्रमणः।। १४ ।। अर्थ:--जो बिना दिया तो दान लेता है और परोक्ष परके दषणोंसे परकी निंदा करत है वह जिनलिंगको धारण करता हुआ भी चोरके समान श्रमण है। भावार्थ:--जो जिनलिंग धारण करके बिना दिया आहार आदिको ग्रहण करता है, परके देनेकी इच्छा नहीं है परन्तु कुछ भयादिक उत्पन्न करके लेना तथा निरादर से लेना, छिपकर कार्य करना ये तो चोरके कार्य हैं। यह भेष धारण करके ऐसे करने लगा तब चोर ही ठहरा, इसलिये ऐसा भेषी होना योग्य नहीं है।। १४ ।। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके ऐसे प्रवर्तते हैं वे श्रमण नहीं हैं:--- उप्पडदि पडदि धावदि पुढवी ओ खणदि लिंगरुवेण। इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१५।। उत्पतति पतति धावति पृथिवी खनति लिंगरुपेण। ईंर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनि: न स श्रमणः ।। १५ ।। -------------------------------------------------------------------------------- अहदत्तनुं ज्यां ग्रहण, जे असमक्ष परनिंदा करे. जिनलिंग धारक हो छतां ते श्रमण चोर समान छ। १४ । लिंगात्म ईर्यासमितिनो धारक छतां कूदे, पडे, दोडे, उखाडे भोंय, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छ। १५ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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