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[अष्टपाहुड अर्थ:--हे भव्यजीवों! तुम इस देहमें स्थित ऐसा कुछ क्यों है, क्या है उसे जानो, वह लोक में नमस्कार करने योग्य इन्द्रादिक हैं उनसे तो नमस्कार करने योग्य, ध्यान करने योग्य है और स्तुति केने योग्य जो तीर्थंकरादि हैं उनसे भी स्तुति करने योग्य है, ऐसा कुछ है वह इस देह ही में स्थित है उसको यथार्थ जानो।
भावार्थ:-- शुद्ध परमात्मा है वह यद्यपि कर्मसे आच्छादित है, तो भी भेदज्ञानी इस देह ही में स्थित का ध्यान करके तीर्थंकरादि भी मोक्ष प्राप्त करते हैं, इसलिये ऐसा कहा है कि-- लोक में नमने योग्य तो इन्द्रिादिक हैं और ध्यान करने योग्य तीर्थंकरादिक हैं तथा स्तुति करने योग्य तीर्थंकरादिक हैं वे भी जिसको नमस्कार करते हैं, जिसका ध्यान करते हैं स्तुति करते हैं ऐसा कुछ वचनके अगोचर भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर परमात्म वस्तु है, उसका स्वरूप जानो, उसको नमस्कार करो, उसका ध्यान करो, बाहर किसलिये ढूंढते हो इसप्रकार उपदेश है।। १०३।।
आगे आचार्य कहते हैं कि जो अरहंतादिक पंच परमेष्ठी हैं वे भी आत्मामें ही हैं इसलिये आत्मा ही शरण है:---
अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठी ते वि हु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। १०४ ।।
अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंच परमेष्टिनः। ते अपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं।। १०४।।
अर्थ:--अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पंचपरमेष्ठी हैं ये भी आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, आत्माकी अवस्था हैं, इसलिये मेरे आत्माही का शरण है, इसप्रकार आचार्य ने अभेदनय प्रधान करके कहा है।
भावार्थ:--ये पाँच पद आत्मा ही के हैं, जब यह आत्मा घातिकर्मका नाश करता है तब अरहंतपद होता है, वही आत्मा अघातिकर्मोंका नाश कर निर्वाण को प्राप्त होता है तब सिद्धपद कहलाता है, जब शिक्षा-दीक्षा देनेवाला मुनि होता है तब आचार्य कहलाता है, पठन-पाठनमें तत्पर मुनि होता है तब अपाध्याय कहलाता है और जन रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग को केवल साधता है तब साधु कहलाता है, इसप्रकार पाँचों पद आत्मा ही में हैं।
अर्हत-सिद्धाचार्य-अध्यापक-श्रमण-परमेष्टी जे, पांचेय छे आत्मा महीं; आत्मा शरण मारूं खरे। १०४ ।
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