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[अष्टपाहुड कई भव्य हैं, ये संसार से निवृत्त होकर सिद्ध होते हैं, इसप्रकार जीवों की व्यवस्था है। अब इनके संसार की उत्पत्ति कैसे है वह कहते हैं:---
जीवों के ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का अनादिबंधरूप पर्याय है, इस बंध के उदय के निमित्त से जीव रागद्वेष मोहादि विभावपरिणतिरूप परिणमता है. इस विभाव पी निमित्त से नवीन कर्मबंध होता है, इसप्रकार इनके संतान परम्परा से जीव के चतुर्गतिरूप संसार की प्रवृत्ति होती है, इस संसार में चारों गतियोंमें अनेक प्रकार सुख-दुःखरूप भ्रमण हुआ करता है; तब कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट हो तब सर्वज्ञ के उपदेश का निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्मबंधके स्वरूप को, अपने भीतरी विभाव के स्वरूप के जाने इनका भेदविज्ञान हो. तब परद्रव्य को संसार का निमित्त जानकर इससे विरक्त हो. अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे--दर्शन-ज्ञानरूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन करे तब इसके बाह्य साधन हिंसादिक पंच पापों का त्यागरूप निग्रंथ पद, --सब परिग्रह की त्यागरूप निग्रंथ दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समितिरूप, तीन गुप्तिरूप प्रवर्ते तब सब जीवों पर दया करनेवाला साधु कहलाता है।
इसमें तीन पद होते हैं---जो आप साधु होकर अन्यको साधुपदकी शिक्षा-दीक्षा दे वह आचार्य कहलाता है, साधु होकर जिनसूत्र को पढ़े पढ़ावे वह उपाध्याय कहलाता है, जो अपने स्वरूपके साधन में रहे वह साधु कहलाता है, जो साधु होकर अपने स्वरूप के साधन के ध्यानके बलसे चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख ओर अनन्तवीर्य को प्राप्त हो वह अरहंत कहलाता है, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली--जिन इन्द्रादिकसे पूज्य होता है, इनकी वाणी खिरती है, जिससे सब जीवों का उपकार होता है, अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, सब जीवों की रक्षा कराते हैं यथार्थ पदार्थों का स्वरूप बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और जो चार अघातिया कर्मों का भी नाशकर सब कर्मों से रहित हो जाते हैं वह सिद्ध कहलाते हैं।
इसप्रकार ये पाँच पद हैं, ये अन्य सब जीवोंसे महान हैं इसलिये पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं, इनके नाम तथा स्वरूपके दर्शन, स्मरण, ध्यान, पूजन नमस्कार से अन्य जीवों के शुभ परिणाम होते हैं इसलिये पाप का नाश होता है. वर्तमान विध्नका विलय होता है आगामी पुण्य का बंध होता है, इसलिये स्वर्गादिक शुभगति पाता है।
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