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नृत्यति गायति तावत् वाद्यं वादयति लिंगरुपेण । सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ।। ४ ।।
अर्थः--जो लिंगरूप करके नृत्य करता है गाता है वादित्र बजाता है सो पापसे मोहित बुद्विवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ:--लिंग धारण करके भाव बिगाड़कर नाचना गाना बजाना इत्यादि क्रियायें करता है वह पापबुद्धि है पशु है अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है, मनुष्य हो तो श्रमणपना रक्खे। जैसे नारद भेषधारी नाचता है, गाता है, बजाता है, वैसे यह भी भेषी हुआ तब उत्तम भेष को लजाया, इसलिये लिंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है । । ४ । ।
आगे फिर कहते हैं:
१ पाठान्तर: -
सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण ।
सो पाव मोहिद मदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। ५ ।।
समूहयति रक्षति च आर्त्तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन।
सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनि न सः श्रमणः ।। ५ ।।
अर्थः--जो निर्ग्रथ लिंग धारण करके परिग्रहको संग्रहरूप करता है अथवा उसकी वांछा चिंतवन ममत्व करता है और उस परिग्रह की रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता है, उसके लिये आर्त्तध्यान निरंतर ध्याता है, वह पापसे मोहित बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है श्रमणपने को बिगाड़ता है, ऐसे जानना।। ५।।
आगे फिर कहते हैं:
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[ अष्टपाहुड
कलहं वादं जूवा णिच्चं बहुमाणागव्विओ लिंगी । 'वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगरुवेण ।। ६ ।।
वच्च वज्ज'।
जे संग्रहे, रक्षे, बहु श्रमपूर्व, ध्यावे आर्तने,
ते पापमोहितबुद्धि छे तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे। ५।
द्यूत जे रमे, बहुमान-गर्वित वाद - कलह सदा करे, लिंगीरूपे करतो थको पापी नरकगामी
बने । ६ ।
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