Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 375
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लिंगपाहुड] [३५१ कलह वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वितः लिंगी। व्रजति नरकं पापः कुर्वाण: लिंगिरुपेण।।६।। अर्थ:--जो लिंगी बहुत मान कषायसे गर्वमान हुआ निरंतर कलह करता है, वाद करता है, द्यूतक्रीड़ा करता है वह पापी नरकको प्राप्त होता है और पापसे ऐसे ही करता रहता है। भावार्थ:--जो गृहस्थरूप करके ऐसी क्रिया करता है उसको तो यह उलाहना नहीं है, क्योंकि कदाचित् गृहस्थ तो उपदेशादिकका निमित्त पाकर कुक्रिया करता रह जाय तो नरक न जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है।। ६।। आगे फिर कहते है:--- पाओ पहदंभावो सेवदि य अबंभु लिंगिरुवेण। सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकतारे।।७।। पापोपहतभावः सेवते च अब्रह्म लिंगिरुपेण। सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे।।७।। अर्थ:--पाप से उपहत अर्थात् घात किया गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ जो लिंगी का रूप करके अब्रह्मका सेवन करता है वह पाप से मोहित बुद्धिवाला लिंगी संसाररूपी कांतार---वन में भ्रमण करता है। भावार्थ:-- पहिले तो लिंग धारण किया और पीछे ऐसा पाप-परिणाम हुआ कि व्यभिचार सेवन करने लगा, उसकी पाप-बुद्धि का क्या कहना ? उसका संसार में भ्रमण क्यों न हो ? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उनके रोग जाने की क्या आशा ? वैसे ही यह हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है।। ७।। आगे फिर कहते हैं:--- जे पाप-उपहतभाव सेवे लिंगमां अब्रह्मने, ते पापमोहित बुद्धिने परिभ्रमण संसृतिकानने। ७। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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