________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
३४०
/ अष्टपाहुड
एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए। जे पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ।। १०६ ।।
एवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च प्राभृतं सुभक्त्या। यः पठति श्रृणोति भावयति सः प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यं ।। १०६ ।।
अर्थ:--पूर्वोक्त प्रकार जिनदेव के कहे हुए मोक्षपाहुड ग्रंथ को जीव भक्ति-भावसे पढ़ते हैं, इसकी बारंबार चितवनरूप भावना करते हैं तथा सुनते हैं, वे जीव शाश्वत सुख, नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय सुख को पाते हैं।
भावार्थ:--मोक्षपाहुड मेह मोक्ष और मोक्षके कारण का स्वरूप कहा है और जो मोक्ष के कारण का स्वरूप अन्य प्रकार मानते हैं उनका निषेध किया है, इसलिये इस ग्रंथ के पढ़ने , सुनने से उसके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान–श्रद्धान आचरण होता है, उस ध्यान से कर्म का नाश होता है और इसकी बारंबार भावना करने से उसमें दृढ़ होकर एकाग्रध्यान की सामर्थ्य होती है, उस ध्यानसे कर्मका नाश होकर शाश्वत सुखरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। इसलिये इस ग्रंथको पढ़ना-सुनना निरन्तर भावना रखनी ऐसा आशय है।। १०६ ।।
इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने यह मोक्ष पाहुड ग्रंथ संपूर्ण किया। इसका संक्षेप इस प्रकार है कि --यह जवि शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनारूप है तो भी अनादि ही से पुद्गल कर्मके संयोग से अज्ञान मिथ्यात्व राग-द्वेषादिक विभावरूप परिणमता है इसलिये नवीन कर्मबंधके संतानसे संसार में भ्रमण करता है। जीवकी प्रवृत्ति के सिद्धांत में सामान्यरूप से चोदह गणस्थान निरूपण किये हैं---इनमें मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गणस्थान होता है , मिथ्यात्वकी सहकारिणी अनंतानुबंधी कषाय है, केवल उसके उदय से सासादन गुणस्थान होता है और सम्यक्त्व-मिथ्यात्व दोनोंके मिलापरूप मिश्रप्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थान होता है, इन तीन गुणस्थानों में तो आत्मभावना का अभाव ही है।
१ पाहुड का पाठान्तर 'कारण' है, सं० छाया में भी समझ लेना।
आ जिननिरूपित मोक्षप्राभृत शास्त्रने सद्भक्ति, जे पठन-श्रवण करे अने भावे, लहे सुख नित्यने। १०६ ।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com