Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 301
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [२७७ मोक्षपाहुड] भावार्थ:--बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकर्म के उदय से (-उदयके वश होने से) मिथ्याभाव है इसलिये वह अपनी देह को आत्मा जानता है, वैसे ही परकी देह अचेतन है तो भी उसको परकी आत्मा मानता है (अर्थात् पर को भी देहात्मबुद्धि से मान रहा है और ऐसे मिथ्याभाव सहित ध्यान करता है) और उसमें बड़ा यत्न करता है, इसलिये ऐसे भावको छोड़ना यह तात्पर्य है।। ९ ।। आगे कहते हैं कि ऐसी ही मान्यतासे पर मनुष्यादिमें मोहकी प्रवृत्ति होती है:--- सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं। सुयदाराईविसए मणुयाणं वइढण मोहो।।१०।। स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम्। सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धते मोहः।।१०।। अर्थ:--इसप्रकार देहमें स्व-परके अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा मनुष्यों के सुत , दारादिक जीवोंमें मोह प्रवर्तता है कैसे हैं मनुष्य - जिनने पदार्थ का स्वरूप (अर्थात् आत्मा) नहीं जाना है ऐसे हैं। अर्थ:-[ अर्थ:---इसप्रकार देह में स्व-पर के अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा जिन मनुष्योंने पदार्थ के स्वरूपको नहीं जाना है उनके सुत, दारादिक जीवोंमें मोह की प्रवृत्ति होती है। ] ( भाषा परिवर्तनकार ने यह अर्थ लिखा है) भावार्थ:--जिन मनुष्योंने जीव-अजीव पदार्थ का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना उनके देहमें स्वपराध्यवसाय है। अपनी देहको अपनी आत्मा जानते हैं और पर की देहको परकी आत्मा जानते हैं, उनके पुत्र स्त्री आदि कुटुम्बियोंमें मोह ( ममत्व) होता है। जब वे जीव-अजीव के स्वरूप को जाने तब देह को अजीव मानें, आत्माको अमर्तिक चैतन्य जानें, तब पर में ममत्व नहीं होता है। इसलिये जीवादिक पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह जानकर मोह नहीं करना यह बतलाया है।। १०।। आगे कहते हैं कि मोहकर्म के उदयसे ( – उदयमें युक्त होनेसे ) मिथ्याज्ञान और मिथ्याभाव होते हैं, उससे आगामी भवमें भी यह मनुष्य देहको चाहता है:-- वस्तुस्वरूप जाण्या विना देहे स्व-अध्यवसायथ अज्ञानी जनने मोह फाले पुत्रदारादिक महीं। १०। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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