Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 356
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३३२] [अष्टपाहुड अर्थ:--जो जिनदेवसे उपदेशित धर्मला पालन करता है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक है और जो अन्यमतके उपदेशित धर्मका पालन करता है उसे मिथ्यादष्टि जानना। भावार्थ:--इसप्रकार कहनेसे यहाँ कोई तर्क करे कि -यह तो अपना मत पुष्ट करने कीपक्षपातमात्र वार्ता कही. अब इसका उत्तर देते हैं कि---ऐसा नहीं है, जिससे सब जीवोंका हित हो वह धर्म है ऐसे अहिंसारूप धर्मका जिनदेव ही ने प्ररूपण किया है, अन्यमत में ऐसे धर्मका निरूपण नहीं है. इसप्रकार जानना चाहये।। ९४ ।। आगे कहते हैं कि जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह संसार में दुःख सहित भ्रमण करता है: मिच्छादिट्ठि जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो।।९५।। मिथ्यादृष्टि: यः सः संसारे संसरति सुखरहितः। जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः।। ९५।। अर्थ:--जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म-जरा-मरणसे प्रचुर और हजारों दुःखोंसे व्याप्त इस संसार में सुखरहित दुःखी होकर भ्रमण करता है। भावार्थ:--मिथ्यात्व भाव का फल संसार में भ्रमण करना ही है. यह संसार जनमजरा-मरण आदि हजारों दुःखों से भरा है, इन दुःखोंको मिथ्यादष्टि इस संसार में भ्रमण करता हुआ भोगता है। यहाँ दुःख तो अनन्त हैं हजारों कहने से प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता बताई है।। ९५।। आगे सम्यक्त्व-मिथ्यात्व भावके कथनका संकोच करते हैं:--- सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु। जं ते मणस्स रूच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु।। ९६ ।। कुदृष्टि जे, ते सुखविहीन परिभ्रमे संसारमां, जर-जन्म-मरण प्रचुरता, दुःखगणसहस्र भर्या जिहां। ९५ । 'सम्यक्त्व गुण, मिथ्यात्व दोष' तुं ओम मन सुविचारीने, कर ते तने जे मन रूचे; बहु कथन शुं करवू अरे ? ९६ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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