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मोक्षपाहुड]
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अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी। सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा।।५८ ।।
अचेतनेपि चेतनं यः मन्यते सः भवति अज्ञानी। सः पुनः ज्ञानी भणितः यः मन्यते चेतने चेतनम्।। ५८।।
अर्थ:--जो अचेतन में चेतनको मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतन में ही चेतनको मानता है उसे ज्ञानी कहा है।
भावार्थ:--सांख्यमती ऐसे कहता है कि पुरुष तो उदासीन चेतनास्वरूप नित्य है और ज्ञान है वह प्रधानका धर्म है, इनके मतमें पुरुषको उदासीन चेतनास्वरूप माना है अत: ज्ञान बिना तो वह जड़ ही हुआ, ज्ञान बिना चेतन कैसे ? ज्ञानी को प्रधानका धर्म माना है और प्रधानको जड़ माना तब अचेतनमें चेतना मानी तब अज्ञानी ही हुआ।
नैयायिक, वैशेषिक मतवाले गुण-गुणीके सर्वथा भेद मानते हैं, तब उन्होंने चेतना गुणको जीवसे भिन्न माना तब जीव तो अचेतन ही रहा। इसप्रकार अचेतनमें चेतनापना माना। भूतवादी चार्वाक - भूत पृथ्वी आदिकसे चेतनाकी उत्पत्ति मानता है, भूत तो जड़ है उसमें चेतना कैसे उपजे ? इत्यादिक अन्य भी कई मानते हैं वे सब अज्ञानी हैं इसलिये चेतना माने वह ज्ञानी है, यह जिनमत है।। ५८।।
आगे कहते हैं कि तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप ये दोनों ही अकार्य हैं दोनों के संयुक्त होने पर ही निर्वाण है:--.
तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ।। ५९।।
तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपः अपि अकृतार्थम्। तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम्।। ५९।।
छे अज्ञ, जेह अचेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे; जे चेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे, ते ज्ञानी छे। ५८ ।
तपथी रहित जे ज्ञान, ज्ञानविहीन तप अकृतार्थ छे, ते कारणे जीव ज्ञानतपसंयुक्त शिवपदने लहे। ५९।
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