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मोक्षपाहुड]
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हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।। ९० ।।
हिंसारहिते धर्मे अष्टादशदोषवर्जिते देवे। निर्ग्रथे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम्।। ९०।।
अर्थ:--हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षका मार्ग तथा गुरु इनमें श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है।
भावार्थ:--लौकिकजन तथा अन्यमत वाले जीवोंकी हिंसासे धर्म मानते हैं और जिनमत में अहिंसा धर्म कहा है, उसी का श्रद्धान करे अन्यक श्रद्धान न करे वह सम्यग्दृष्टि है। लौकिक अन्यमत वाले मानते हैं वे सब देव क्षुधादि तथा रागद्वेषादि दोषोंसे संयुक्त हैं, इसलिये वीतराग सर्वज्ञ अरहंत देव सब दोषोंसे रहित हैं उनको देव माने, श्रद्धान करे वही सम्यग्दृष्टि है।
यहाँ अठारह दोष कहे वे प्रधानताकी अपेक्षा कहे हैं इनको उपलक्षणरूप जानना, इनके समान अन्य भी जान लेना। निग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग वही मोक्षमार्ग है, अन्यलिंग से अन्यमत वाले श्वेताम्बरादिक जैसाभास मोक्ष मानते हैं वह मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा श्रद्धान करे वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना।। ९०।।
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करेत हुए कहते हैं:----
जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंग परिचत्तं। लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ वस्स सम्मत्तं ।। ९१।।
हिंसासुविरहित धर्म, दोष अढार वर्जित देवर्नु, निग्रंथ प्रवचन केलं जे श्रद्धान ते समकित कह्यु। ९०।
सम्यक्त्व तेने, जेह माने लिंग परनिरपेक्षने, रूपे यथातक, सुसंयत, सर्वसंगविमुक्तने। ९१ ।
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