Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

Previous | Next

Page 342
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३१८ ] [ अष्टपाहुड निमित्तसे ज्ञानमें परद्रव्यसे इष्ट अनिष्ट बुद्धि होती है, इस इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के अभाव से ज्ञान ही में उपयोग लगा रहे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं, वही चारित्र है, यह होता है वहाँ निंदाप्रशंसा, दुःख-सुख, शत्रु-मित्र में समान बुद्धि होती है, निंदा - प्रशंसाका द्विधाभाव मोहकर्म का उदयजन्य है, इसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है ।। ७२ ।। आगे कहते हैं कि कई मूर्ख ऐसे कहते हैं जो अभी पंचमकाल है सो आत्मध्यानका काल नहीं है, उसका निषेध करते हैं: चरियावरिया वद समिदिवज्जिया सुद्धभावपब्भट्ठा। केइ जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ।। ७३ ।। चर्यावृताः व्रतसमितिवर्जिताः शुद्धभावप्रभ्रष्टाः। केचित् जल्पंति नराः न स्फुटं कालः ध्यानयोगस्य ।। ७३ ।। अर्थ:-- कई मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचार क्रिया आवृत है, चारित्र मोह का उदय प्रबल है इससे चर्या प्रकट नहीं होती है, इसी से व्रत समिति से रहित है और मिथ्याअभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं कि-- - अभी पंचमकाल है, यह काल प्रकट ध्यान - योगका नहीं है ।। ७३ ।। वे प्राणी कैसे हैं वह आगे कहते हैं: सम्मत्तणाणरहिओ अभव्य जीवो हु मोक्खपरिमुक्को। ससारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ।। ७४ ।। सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवः स्फुटं मोक्षपरिमुक्तः । संसारसुखे सुरतः न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य ।। ७४ ।। अर्थ:-- पूर्वोक्त ध्यान का अभाव करने वाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञानसे रहित है, अभव्य है, इसीसे मोक्ष रहित है और संसारके इन्द्रिय-सुखको भले जानकर उनमें आवृतचरण, व्रतसमितिवर्जित, शुद्धभावविहीन जे, ते कोई नर जल्पे अरे ! ' नहि ध्याननो आ काळ छे ।' ७३ । सम्यक्त्वविहीन, शिवपरिमुक्त जीव अभय जे, ते सुरेत भवसुखमां कहे- ' नहि ध्याननो आ काळ छे।' ७४। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418