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मोक्षपाहुड]
[३१५ ये उत्तरोत्तर दुर्लभ पाये जाते हैं, विषयोंमें लगा हुआ प्रथम तो आत्माको जानता नहीं है ऐसे कहा, अब यहाँ इसप्रकार कहा कि आत्माको जानकर भी विषयोंके वशीभूत हुआ भावना नहीं करे तो संसार ही में भ्रमण करता है, इसलिये आत्माको जानकर विषयों से विरक्त होना यह उपदेश है।। ६७।।
आहे कहते हैं कि जो विषयों विरक्त होकर आत्मा को जानकर भाते हैं वे संसार को छोडते हैं:---
जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया। छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो।।६८।।
ये पुनः विषयविरक्ताः आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः। त्यति चातुरंगं तपोगुणयुक्ताः न संदेहः।। ६८।।
अर्थ:--फिर जो पुरुष मुनि विषयोंसे विरक्त हो आत्माको जानकर भाते हैं, बारंबार भावना द्वारा अनुभव करते हैं वे तप अर्थात् बारह प्रकार तप और मूलगुण उत्तरगुणोंसे युक्त होकर संसारको छोड़ते हैं, मोक्ष पाते हैं।
भावार्थ:--विषयों से विरक्त हो आत्मा को जानकर भावना करना, इससे संसार से छूट कर मोक्ष प्राप्त करो, यह उपदेश है।। ६८।।
आगे कहते हैं कि यदि परद्रव्य में लेशमात्र भी राग हो तो वह पुरुष अज्ञानी है, अपना स्वरूप उसने नहीं जाना:---
परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ।। ६९।।
परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात्। सः मूढः अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः।। ६९।।
पण विषयमांही विरक्त, आतम जाणी भावनयुक्त जे, निःशंक ते तपगुणसहित छोडे चतुर्गति भ्रमणने। ६८।
परद्रव्यमां अणुमात्र पण रति होय जेने मोहथी, ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत आत्मस्वभावथी। ६९ ।
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