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। अष्टपाहुड
जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।। ३७।।
यत् जानाति तत् ज्ञानं यत्पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम्। तत् चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम्।।३७।।
अर्थ:--जो जाने वह ज्ञान है, जो देखे वह दर्शन है और जो पुण्य तथा पापका परिहार है वह चारित्र है, इसप्रकार जानना चाहिये।
भावार्थ:--यहाँ जाननेवाला तथा देखनेवाला और त्यागनेवाला दर्शन, ज्ञान, चारित्रको कहा ये तो गुणी के गुण हैं, ये कर्त्ता नहीं होते हैं इसलिये जानन, देखन, त्यागन क्रियाका कर्ता आत्मा है, इसलिये ये तीन आत्मा ही है, गुण-गुणीमें कोई प्रदेशभेद नहीं होता है। इसप्रकार रत्नत्रय है वह आत्मा ही है, इसप्रकार जानना।।३७।।
आगे इसी अर्थ को अन्य प्रकासे कहते हैं:---
तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं हवइ सण्णाणं। चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं।।३८।।
तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्त्वग्रहणं च भवति संज्ञानम। चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रैः।।३८।।
अर्थ:--तत्वरुचि सम्यक्त्व है, तत्त्वका ग्रहण सम्यग्ज्ञान है, परिहार चारित्र है, इसप्रकार जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेवने कहा है।
भावार्थ:--जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन तत्त्वोंका श्रद्धान रुचि प्रतीति सम्यग्दर्शन है, इनही को जानना सम्यग्ज्ञान है और परद्रव्यके परिहार संबंधी क्रिया की निवृत्ति चारित्र है; इसप्रकार जिनेश्वरदेवने कहा है, इनको निश्चय-व्यवहार नयसे आगमके अनुसार साधना।। ३८ ।।
जे जाणवू ते ज्ञान, देखे तेह दर्शन जाणवू , जे पाप तेम ज पुण्यनो परिहार ते चारित कह्यु। ३७।
छे तत्त्वरुचि, तत्त्वतणुं ग्रहण सद्ज्ञान छे, परिहार ते चारित्र छे; जिनवरवृषभ निर्दिष्ट छ। ३८ ।
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