Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

Previous | Next

Page 323
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [२९९ कायक्लेशादि बाह्य तप करता है वह मुनि अंतरंग तप ध्यानके द्वारा शुद्ध आत्माका एकाग्र चित्त करके ध्यान करता हुआ निर्वाणको प्राप्त करता है।। ४३।। [ नोंध---जो छठवें गुणस्थानके योग्य स्वाश्रयरूप निश्चयरत्नत्रय सहित है उसीके व्यवहार संयम-व्रतादिक को व्यवहारचारित्र माना है।] आगे कहते हैं कि ध्यानी मुनि ऐसा बनकर परमात्माका ध्यान करता है:--- तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परिरयरिओ। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४४ ।। त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिरकरितः। द्वि दोषविप्रमुक्त: परमात्मानं ध्यायते योगी।। ४४।। अर्थ:--' त्रिभिः' मन वचन कायसे, 'त्रीन्' वर्षा, शीत, उष्ण तीन कालयोगों को धारण कर, त्रिकरहित' माया, मिथ्या, निदान तीन शल्योंसे रहित होकर, त्रिकेण परिकरितः' दर्शन, ज्ञान, चारित्र से मंडित होकर और 'द्विदोषविप्रमुक्तः' दो दोष अर्थात् राग-द्वेष इनसे रहित होता हआ योगी ध्यानी मनि है. वह परमात्मा अर्थात सर्वकर्म रहित शद्ध परमात्मा उनका ध्यान करता है। भावार्थ:--मन वचन काय से तीन कालयोग धारणकर परमात्माका ध्यान कर इसप्रकार कष्ट में दृढ़ रहे तब ज्ञात होता है कि इसके ध्यान की सिद्धि है, कष्ट आने पर चलायमान हो जाये तब ध्यान की सिद्धि कैसी? कोई प्रकार का चित्त में शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं होता तब ध्यान कैसे हो? इसलिये शल्य रहित कहा; श्रद्धान, ज्ञान आचरण यथार्थ न हो तब ध्यान कैसे हो? इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग-द्वेष, इष्ट-अनिष्ट बद्धि रहे तब ध्यान कैसे हो? इसलिये परमात्मा का ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पर्य है।। ४४।। आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार होता है वह उत्तम सुखको पाता है:--- त्रणथी धरी त्रण, नित्य त्रिकविरहितपणे त्रिकयुतपणे, रही दोषयुगल विमुक्त ध्यावे योगी निज परमात्मने। ४४ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418