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सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहु। सो तेण दु अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीओ ।। ५४ ।।
शुभ योगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः । सः तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः ।। ५४ ।।
अर्थ:--शुभ योग अर्थात् अपने इष्ट वस्तु के संबंध से प्रीतिभाव को करता है वह प्रगट राग-द्वेष है, इष्टमें राग हुआ होता ही है, इसप्रकार जो राग-द्वेष करता है वह उस कारण से जो इससे विपरीत अर्थात् उलटा है परद्रव्यमें राग-द्वेष नहीं करता है वह ज्ञानी है।
परद्रव्य में सुभाव अर्थात् तब अनिष्ट वस्तुमें द्वेषभाव रागी -द्वेषी - अज्ञानी है और
भावार्थ:--ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुनिके परद्रव्यमें रागद्वेष नहीं है क्योंकि राग उसको कहते
हैं कि--जो परद्रव्य को सर्वथा इष्ट मानकर राग करता है वैसे ही अनिष्टमानकर द्वेष करता है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट-अनिष्टकी कल्पना ही नहीं करता है तब राग-द्वेष कैसे हो ? चारित्र मोहके उदयवश होने से कुछ धर्मराग होता है उसको भी राग जानता है भला नहीं समझता है तब अन्यसे कैसे राग हो ? परद्रव्य से राग-द्वेष करता है वह तो अज्ञानी है, ऐसे जानना । । ५४ ।।
आगे कहते हैं कि जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्षके निमित्त भी राग हो तो वह राग भी आस्रवका कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता है:
आसवहेदु य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीओ ।। ५५ ।।
[ अष्टपाहुड
शुभ अन्य द्रव्ये रागथी मुनि जो करे रुचिभावने,
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे । ५४ ।
आस्रवहेतुश्च तथा भाव : मोक्षस्य कारणं भवति । सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात्तु विपरीतः।। ५५ ।।
अर्थ:--जैसे परद्रव्यमें रागको कर्मबंधका कारण पहिले कहा वैसे ही राग - भाव
आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते, तेथी ज ते छे अज्ञ, आत्मस्वभावथी विपरीत छे । ५५ ।
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