Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 321
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [२९७ अन्यमती छद्मस्थ हैं, इन्होंने अपनी बुद्धिमें आया वैसे ही कलपना करके कहा है वह प्रमाणसिद्धि नहीं है। इनमें कई वेदान्ती तो एक ब्रह्ममात्र कहते हैं, अन्य कुछ वस्तयभूत नहीं है मायारूप अवस्तु है ऐसा मानते हैं। कई नैयायिक, वैशेषिक जीव को सर्वथा नित्य सर्वगत कहते हैं, जीवके और ज्ञानगुण के सर्वथा भेद मानते हैं और अन्य कार्यमात्र है उनको ईश्वर करात है इसप्रकार मानते हैं। कई सांख्यमती पुरुषको उदासीन चैतन्यरूप मानकर सर्वथा अकर्ता मानते हैं ज्ञानको प्रधान का धर्म मानते हैं। कई बौद्धमती सर्व वस्तु क्षणिक मानते हैं, सर्वथा अनित्य मानते हैं, इनमें भी अनेक मतभेद हैं, कई विज्ञानमात्र तत्त्व मानते हैं, कई सर्वथा शून्य मानते हैं, कोई अन्यप्रकार मानते हैं। मीमांसक कर्मकांडमात्र ही तत्त्व मानते हैं, जीवको अणुमात्र मानते हैं तो भी कुछ परमार्थ नित्य वस्तु नहीं है--इत्यादि मानते हैं, पंचभूतों से जीवकी उत्पत्ति मानते हैं। ___ इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्त्व मानकर परस्पर में विवाद करते हैं, यह युक्त ही है- वस्तुका पूर्णस्वरूप दिखता नहीं है तब जैसे अंधे हस्तीला विवाद करते हैं वैसे विवाद ही होता है, इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने ही वस्तुका पूर्णरूप देखा है वही कहा है। यह प्रमाण और नयोंके द्वारा अनेकान्तरूप सिद्ध होता है। इनकी चर्चा हेतुवाद के जैनके न्याय-शस्त्रोंसे जानी जाती है, इसलिये यह उपदेश है--जिनमतमें जीवाजीवका स्वरूप सत्यार्थ कहा है उसको जानना सम्यग्ज्ञान है, इसप्रकार जानकर जिनदेवकी आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञानको अंगीकार करना, इसीसे सम्यकचारित्रकी प्राप्ति होती है. ऐसे जानना।। ४१।। आगे सम्यक्चारित्रका स्वरूप कहते हैं:--- जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं। तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं।। ४२।। यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम्। तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः।। ४२।। अर्थ:--योगी ध्यानी मुनि उस पूर्वोक्त जीवाजीवके भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञानको ते जाणी योगी परिहरे छे पाप तेम ज पुण्यने, चारित्र ते अविकल्प भाख्यं कर्मरहित जिनेश्वरे। ४२। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418