________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
२७६ ]
/ अष्टपाहुड भावार्थ:--परमात्मा के ध्यान करने का उपदेश प्रधान करके कहा है, इसीसे मोक्ष पाते हैं।। ७।।
आगे बहिरात्मा की प्रवृत्ति कहते हैं:---
बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मुढदिट्ठीओ।।८।।
बहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रियद्वारेण निद्धस्वरूपच्युतः। निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढद्रष्टिस्तु।।८।।
अर्थ:--मूढदृष्टि अज्ञानी मोही मिथ्यादृष्टि है वह बाह्य पदार्थ – धन, धान्य, कुटुम्ब आदि इष्ट पदार्थों में स्फुरित ( – तत्पर) मनवाला है तथा इन्द्रियोंके द्वारा अपने स्वरूप से च्युत है और इन्द्रियोंको ही आत्मा जानता है, ऐसा होता हुआ अपने देहको ही आत्मा जानता है--निश्चय करता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है।
भावार्थ:---ऐसा बहिरात्माका भाव है उसको छोड़ना।। ८ ।।
आगे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि अपनी देहके समान दूसरोंकी देहको देखकर उसको दूसरे की आत्मा मानता है:---
णियदेहसरिच्छं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण। अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परम भावेण।।९।।
निजदेहसदृशं द्रष्टवा परविग्रहं प्रयत्नेन। अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परम भावेन।।९।।
अर्थ:---मिथ्यादृष्टि पुरुष अपनी देहके समान दूसरे की देहको देख करके यह देह अचेतन है तो भी मिथ्याभाव से आत्मभाव द्वारा बड़ा यत्न करके परकी आत्मा ध्ताया है अर्थात् समझता है।
१ - पाठान्तर – 'चुओ' के स्थान पर 'चओ' २- 'सरिच्छं' पाठान्तर 'सरिसं'
बाह्यार्थ प्रत्ये स्फुरितमन, स्वभ्रष्ट इन्द्रियद्वारथी, निज देह अध्यवसित करे आत्मापणे जीव मूढधी। ८।
निजदेह सम परदेह देखी मूढ त्यां उद्यम करे, रते छ अचेतन तोय माने तेहने आत्मापणे। ९।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com