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मोक्षपाहुड]
[२७३
यत् ज्ञात्वा योगी योगस्थः द्रष्ट्वा अनवरतम्। अव्याबाधमनंतं अनुपमं लभते निर्वाणम्।।३।।
अर्थ:--आगे कहेंगे कि परमात्माको जानकर योगी ( – मुनि) योग (- ध्यान) में स्थित होकर निरन्तर उस परमात्मा को अनुभवगोचर करके निर्वाण को प्राप्त होता है। कैसा है निर्वाण ? 'अव्याबाध' है, - जहाँ किसी प्रकार की बाधा नहीं है। 'अनंत' है -जिसका नाश नहीं है। 'अनपम' है.-- जिसको किसी की उपमा नहीं लगती है।
भावार्थ:--आचार्य कहते हैं कि ऐसे परमात्माको आगे कहेंगे जिसके ध्यानमें मुनि निरंतर अनुभव करके केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। यहाँ यह तात्पर्य है कि परमात्मा के ध्यान से मोक्ष होता है।। ३।।
आगे परमात्मा कैसा है ऐसा बतानेके लिये आत्माको तीन प्रकार दिखाते हैं:--
तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो हु देहीणं। तत्थ परो झाइज्जइ अंतो वाएण चइवि बहिरप्पा।।४।।
त्रिप्रकार: स आत्मा परमन्त: बहि:स्फटं देहिनाम। तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानम्।।४।।
अर्थ:--वह आत्मा प्राणियोंके तीन प्रकारका है; अंतरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा। अंतरात्माके उपाय द्वारा बहिरात्माको छोड़कर परमात्माका ध्यान करना चाहिये।
भावार्थ:--बहिरात्मपन को छोड़कर अंरतात्मारूप होकर परमात्माका ध्यान करना चाहिये, इससे मोक्ष होता है।। ४।।
आगे तीन प्रकारके आत्माका स्वरूप दिखाते हैं:--- --------
१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'हु हेऊणं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'तु हित्वा' की है।
ते आतमा छे परम-अंतर-बहिर त्रणधा देहीमां; अंतर-उपाये परमने ध्याओ, ते बहिरातमां। ४ ।
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