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। अष्टपाहुड
शिवमजरामलिंगं अनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम्। प्राप्तो वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः।। १६२।।
अर्थ:--जो जिन भावना से भावित जीव हैं वे ही सिद्धि अर्थात् मोक्ष के सुखको पाते हैं। कैसा है सिद्धिसख? 'शिव' है. कल्याणरूप है. किसीप्रकार उपद्रव सहित नहीं है. 'अजरामरलिंग' है अर्थात् जिसका चिन्ह वृद्ध होना और मरना इन दोनोंसे रहित है, 'अनुपम' है, जिसको संसारके सुखकी उपमा नहीं लगती है, 'उत्तम' (सर्वोत्तम) है, 'परम' ( सर्वोत्कृष्ट) है, महार्घ्य है अर्थात् महान् अर्घ्य-पूज्य प्रशंसा के योग्य है, 'विमल' है कर्मके मल तथा रागादिक मलके रहित है। 'अतुल' है, इसके बराबर संसारका सुख नहीं है, ऐसे सुखको जिन-भक्त पाता है, अन्यका भक्त नहीं पाता है।। १६२ ।।
__ आगे आचार्य प्रार्थना करते हैं कि जो ऐसे सिद्ध सुख को प्राप्त हुए सिद्ध भगवान वे मुझे भावों की शुद्धता देवें:
ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्या। किंतु वरभावसुद्धिं दंसण णाणे चरित्ते य।। १६३।।
ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः सुद्धाः निरंजनाः नित्याः। ददतु वरभावशुद्धिं दर्शने ज्ञाने चारित्रे च।। १६३ ।।
अर्थ:--सिद्ध भगवान मुझे दर्शन, ज्ञान में और चारित्र में श्रेष्ठ उत्तमभाव की शुद्धता देवें। कैसे हैं सिद्ध भगवान ? तीन भवन से पज्य हैं, शुद्ध हैं, अर्थात द्रव्यकर्म और नोकर्म रूप मल से रहित हैं, निरंजन हैं अर्थात् रागादि कर्मसे रहित हैं, जिनके कर्मकी उत्पत्ति नहीं है, नित्य है---प्राप्त स्वभावका फिर नाश नहीं है।
भावार्थ:--आचार्य ने शुद्धभावका फल सिद्ध अवस्था और जो निश्चय इस फलको प्राप्त हुए सिद्ध , इनसे यही प्रार्थना की है कि शुद्धभाव की पूर्णता हमारे होवे।। १६३।।
आगे भावके कथन का संकोच करेत हैं:---
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भगवंत सिद्धो-त्रिजग पूजित, नित्य, शुद्ध, निरंजना, -वर भावशुद्धि दो मने दग, ज्ञान ने चारित्रमा। १६३।
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