Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 265
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ २४१ भावपाहुड ] बीज अनादि है वह एकबार दग्ध हो जाने पर फिर पीछे फिर नहीं उगता है, उसी तरह इसे जानना ।। १२६ । । आगे संक्षेप से उपदेश करते हैं: भावसवणो वि पावइ सुक्खाइं इय णाउं गुणदोसे भावेण दुहाई दव्वसवणो य। संजुदो होइ।। १२७ ।। भावश्रमणः अपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रव्यश्रमणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव ।। १२७ ।। अर्थः--भावश्रमण तो सुखोंको पाता है और द्रव्यश्रमण दुःखोंको पाता गुण दोषोंको जानकर हे जीव ! तू भावसहित संयमी बन । भावार्थः––सम्यग्दर्शन सहित भावश्रमण होता है, वह संसारका अभाव करके सुखोंको पाता है और मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होता है, वह संसार का अभाव नहीं कर सकता है, इसलिये दुःखोंको पाता है। अतः उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण दोष जानकर भावसहयमी होना योग्य है, यह सब उपदेशका सार है ।। १२७ ।। आगे फिर भी इसी का उपदेश अर्थरूप संक्षेप से कहते हैं: तित्थयरगणहराइं अब्भुदयपरंपराई सोक्खाइं । पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वज्जरियं । । १२८ ।। तीर्थंकरगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि । प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम् ।। १२८ ।। अर्थः--जो भाव सहित मुनि हैं वे अभ्युदयसहित तीर्थंकर सुखोंको पाते हैं, यह संक्षेप से कहा है । रे! भावश्रमण सुखो लहे ने द्रव्यमुनि दुःखो लहे; तुं भावथी संयुक्त था, गुणदोष जाणी ओ रीते । १२७ । तीर्थेश-गणनाथादिगत अभ्युदययुत सौख्यो तणी, प्राप्ति करे छे भावमुनि - भाख्युं जिने संक्षेपथी । १२८ । इस प्रकार - Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com गणधर आदि पदवी के

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