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भावपाहुड]
[२०९ आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिये कहते हैं कि--- जो आत्मा के लिये इष्ट नहीं करता है और समस्त पुण्यका आचरण करता है तो भी सिद्धि को नहीं पाता है:--
अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि णिरवसेसाइं। तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।। ८६ ।।
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषानि। तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः।। ८६ ।।
अर्थ:--अथवा जो पुरुष आत्माका इष्ट नहीं करता है, उसका स्वरूप नहीं जानता है, अंगीकार नहीं करता है और सब प्रकारके समस्त पुण्यको करता है, तो भी सिद्धि (मोक्ष) को नहीं पाता है किन्तु वह पुरुष संसार ही में भ्रमण करता है।
भावार्थ:--आत्मिक धर्म धारण किये बिना सब प्रकारके पुण्य का आचरण करे तो भी मोक्ष नहीं होता है, संसार ही में रहता है। कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावे तो वहाँ भोगों में आसक्त होकर रहे, वहाँ से चय एकेन्द्रियादिक होकर संसार ही में भ्रमण करता है।। ८६ ।।
आगे, इस कारणसे आत्मा ही का श्रद्धान करो, प्रयत्नपूर्वक जानो, मोक्ष प्राप्त करो, ऐसा उपदेश करते हैं:----
एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण। जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण।। ८७।।
एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन। येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन।। ८७।।
अर्थ:--पहिले कहा था कि आत्मा का धर्म तो मोक्ष है, उसी कारण से कहते हैं
पण आत्मने इच्छया विना पुण्यो अशेष करे भले, तोपण लहे नहि सिद्धिने, भवमा भमे-आगम कहे। ८६ ।
आ कारणे ते आत्मनी त्रिविधे तमे श्रद्धा करो, ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो। ८७ ।
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