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भावपाहुड]
[ २२७ भावार्थ:--शीतकाल में बाहर खुले मैदानमें सोना – बैठना, ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर सूर्यसन्मुख आतापनयोग धारना, वर्षा कालमें वृक्षके नीचे योग धरना, जहाँ बूंदें वृक्ष पर गिरने के बाद एकत्र होकर शरीर पर गिरें। इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा बहुत है, इनको आदि लेकर यह उत्तर गुण है, इनका पालन भी भावशुद्धि करके करना। भावशुद्धि बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है, इसलिये भाव शुद्ध करके करने का उपदेश है। ऐसा न जानना कि इनको बाह्यमें करने का निषेध करते हैं। इनको भी करना और भाव भी शुद्ध करना यह आशय है। केवल पूजा - लाभादि के लिये, अपना बड़प्पन दिखाने के लिये करे तो कुछ फल (लाभ) की प्राप्ति नहीं है।। ११३।।
आगे तत्त्वकी भावना करने का उपदेश करते हैं:----
भावहि पढमं तच्चं बदियं तदियं चउत्थं पंचमयं। तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं।। ११४ ।।
भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थं पंचमकम्। त्रिकरणशुद्ध: आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम्।। ११४।।
अर्थ:--हे मुने! तू प्रथम जो जीवतत्त्व उसका चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्वका चिन्तन कर, तृतीय आस्रवतत्त्व का चिन्तन कर, चतुर्थ बन्धतत्त्वका चिन्तन कर, पँचम संवरतत्त्वका चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से शुद्ध होकर आत्मस्वरूपका चिन्तन कर; जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम इनको हरनेवाला है।
भावार्थ:--प्रथम 'जीवतत्त्व' की भावना तो, ‘सामान्य जीव' दर्शन-ज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, उसकी भावना करना। पीछे ऐसा मैं हूँ इसप्रकार आत्मतत्त्वकी भावना करना।
दसरा 'अजीवतत्त्व' है सो सामान्य अचेतन जड है. यह पाँच भेदरूप पदगल. धर्म. अधर्म, आकाश, काल हैं इनका विचार करना। पीछे भावना करना कि ये हैं वह मैं नहीं हूँ।
तुं भाव प्रथम, द्वितिय, त्रीजा, तुर्य, पंचम तत्त्वने , आद्यंत रहित त्रिवर्गहर जीवने, त्रिकरण विशुद्धिओ। ११४ ।
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