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भावपाहुड]
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भावार्थ:--आर्त्त-रौद्र ध्यान अशुभ है, संसार के कारण हैं। ये दोनों ध्यान जो जीवके बिना उपदेश ही अनादिसे पाये जाते हैं, इसलिये इनको छोड़नेका उपदेश है। धर्म शुक्ल ध्यान स्वर्ग - मोक्षके कारण हैं। इनको कभी नहीं ध्याया, इसलिय इनका ध्यान करने का उपदेश है। ध्यानका स्वरूप 'एकाग्रचिंतानिरोध' कहा है; धर्मध्यानमें तो धर्मानुरागका सद्भाव है सो धर्मके---मोक्षमार्गके कारणमें रागसहित एकाग्रचिंतानिरोध होता है, इसलिये शुभराग के निमित्तसे पुण्यबन्ध भी होता है और विशुद्ध भावके निमित्तसे पापकर्म की निर्जरा भी होती है। शुक्लध्यान में आठवें नौवें दसवें गुणस्थानमें तो अव्यक्त राग है। वहाँ अनुभव अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है, इसलिये 'शुक्ल' नाम रखा है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग-कषायका अभाव ही है, इसलिये सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्लध्यान युक्त ही है। इतनी और विशेषता है कि उपयोगके एकाग्रपनारूप ध्यानकी स्थिति अनतर्मुहूर्त की कही है। इस अपेक्षा से तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानमेह ध्यानका उपचार है और योगक्रियाके स्थंभनकी अपेक्षा ध्यान कहा है। यह शुक्लध्यान कर्मकी निर्जरा करके जीवको मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यानका उपदेश जानना।। १२१।।
आगे कहते हैं कि यह ध्यान भावलिंगी मुनियोंको मोक्ष करता है:---
जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति। छिंदंति भावसवणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं ।। १२२।।
ये केऽपि द्रव्यश्रमणा ईन्द्रियसुखाकुलाः न छिंदन्ति।
छिंदन्ति भावश्रमणाः ध्यानकुठारैः भववृक्षम्।। १२२ ।। अर्थ:--कई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं, वे तो इन्द्रियसुखमें व्याकुल हैं, उनके यह धर्म - शुक्लध्यान नहीं होता। वे तो संसाररूपी वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं हैं, और जो भावलिंगी श्रमण हैं, वे ध्यानरूपी कुल्हाड़ेसे संसाररूपी वृक्षको काटते हैं।
भावार्थ:--जो मुनि द्रव्यलिंग तो धारण करते हैं, परन्तु उसको परमार्थ सुखका अनुभव नहीं हुआ है, इसलिये इहलोक परलोकमें इन्द्रियोंके सुख ही को चाहते हैं, तपश्चरणादिक भी इसी अभिलाष से करते हैं उनके धर्म-शुक्ल ध्यान कैसे हो? अर्थात् नहीं होता है।
द्रव्ये श्रमण इन्द्रियसुखाकुल होईने छेदे नहीं; भववृक्ष छेदे भावश्रमणो ध्यानरूप कुठारथी। १२२ ।
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