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भावपाहुड]
[ १८३ भावार्थ:--द्रव्यलिंग धारण कर निर्ग्रन्ध मुनि बनकर शुद्ध स्वरूपके अनुभवरूप भाव बिना यह जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण ही करता रहा, ऐसा स्थान नहीं रहा जिसमें मरण नहीं हुआ हो।
आगे चौरासी लाख योनिके भेद कहते हैं---पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद ये तो सात-सात लाख हैं, सब ब्यालीस लाख हुए, वनस्पति दस लाख हैं, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय दो - दो लाख हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख, मनुष्य चौदह लाख। इसप्रकार चौरासी लाख हैं। ये जीवोंके उत्पन्न होने के स्थान हैं।। ४७।।
आगे कहते हैं कि द्रव्यमात्रसे लिंगी नहीं होता है भावेसे होता है:----
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण। तम्हा कुणिज्ज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण।। ४८।।
भावेन भवति लिंगी न हि भवति लिंगी द्रव्यमात्रेण। तस्मात् कुर्या: भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन।। ४८।।
अर्थ:-- लिंगी होता है सो भावलिंग ही से होता है, द्रव्यलिंगसे लिंगी नहीं होता है यह प्रकट है; इसलिये भावलिंग ही धारण कराना, द्रव्यलिंगसे क्या सिद्ध होता है ?
भावार्थ:--आचार्य कहते हैं कि---इससे अधिक क्या कहा जावे, भावलिंग बिना 'लिंगी' नाम ही नहीं होता है, क्योंकि यह प्रगट है कि भाव शुद्ध न देखें तब लोग ही कहें कि काहे का मुनि है ? कपटी है। द्रव्यलिंग से कुछ सिद्धि नहीं है, इसलिये भावलिंग ही धारण करने योग्य है।। ४८।।
आगे इसीको दृढ़ करने के लिये द्रव्यलिंगधारकको उलटा उपद्रव हुआ, उदाहरण कहते
है:--
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छे भावथी लिंगी, न लिंगी द्रव्यलिंगथी होय छे; तेथी धरो रे! भावने, द्रव्यलिंगथी शुं साध्य छे ? ४८ ।
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