________________
१९४]
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[अष्टपाहुड आगे कहते हैं कि जो पुरुष जीवका अस्तित्व मानते हैं वे *सिद्ध होते हैं :---
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ। ते होंति भिण्णदेहा: सिद्धा वचिगोयरमदीदा।।६३।।
येषां जीवस्वभावः नास्ति अभावः च सर्वथा तत्र। ते भवन्ति भिन्नदेहा: सिद्धा: वचोगोचरातीताः।। ६३ ।।
अर्थ:--जिन भव्यजीवोंके जीव नामक पदार्थ सद्भावरूप है और सर्वथा अभावरूप नहीं है, वे भव्यजीव देह से भिन्न तथा वचनगोचरातीत सिद्ध होते हैं।
भावार्थ:--जीव द्रव्यपर्यायस्वरूप है, कथंचित् अस्तिस्वरूप है, कथंचित् नास्तिस्वरूप है। पर्याय अनित्य है, इस जीवके कर्मके निमित्त से मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक पर्याय होती है, इसका कदाचित् अभाव देखकर जीवका सर्वथा अभाव मानते हैं। उनको सम्बोधन करने के लिये ऐसा कहा है कि जीवका द्रव्यदृष्टि से नित्य स्वभाव है। पर्याय का अभाव होने पर सर्वथा अभाव नहीं मानता है वह देह से भिन्न होकर सिद्ध परमात्मा होता है, वे सिद्ध वचनगोचर नहीं है। जो देह को नष्ट होते देखकर जीवका सर्वथा नाश मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, वे सिद्ध परमात्मा कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं होते हैं।। ६३ ।।
आगे कहते हैं कि जो जीवका स्वरूप वचनके अगोचर है ओर अनुभवगम्य है वह इसप्रकार है:---
अरसमरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसई। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। ६४।।
अरसमरूपमगंधं अव्यक्तं चेतनागुणं अशब्दम्। जानीहि अलिंगग्रहणं जीवं अनिर्दिष्ट संस्थानम्।। ६४।।
* सिद्ध - मुक्त-परमात्मदशाको प्राप्त।
'सत्' होय जीवस्वभाव ने न 'असत्' सरवथा जेमने, ते देहविरहित वचनविषयातीत सिद्धपणं लहे। ६३।
जीव चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द , अव्यक्त छे, वळी लिंगग्रहणविहीन छे, संस्थान भाख्युं न तेहने। ६४।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com