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भावपाहुड]
अर्थ:--हे भव्य! तू जीवका स्वरूप इसप्रकार जान - कैसा है ? अरस अर्थात् पाँच प्रकार के खट्टे, मीठे, कडुवे, कषायले और खारे रससे रहित है। काला, पीला, लाल, सफेद
और हरा इसप्रकार अरूप अर्थात् पाँच प्रकार के रूप से रहित है। दो प्रकार की गंध से रहित है। अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियोंके गोचर - व्यक्त नहीं है। चेतना गुणवाला है। अशब्द अर्थात् शब्द रहित है। अलिंगग्रहण अर्थात् जिसका कोई चिन्ह इन्द्रिय द्वारा ग्रहण में नहीं आता है। अनिर्दिष्ट संसथान अर्थात् चौकोर, गोल आदि कुछ आकार उसका कहा नहीं जाता है, इसप्रकार जीव जानो।
भावार्थ:--रस, रूप, गंध, शब्द ये तो पुद्गलके गुण हैं, इनका निषेधरूप जीव कहा; अव्यक्त , अलिंगग्रहण, अनिर्दिष्टसंस्थान कहा, इसप्रकार ये भी पुद्गलके स्वभाव की अपेक्षा से निषेधरूप ही जीव कहा और चेतना गुण कहा तो यह जीवका विधिरूप कहा। निषेध अपेक्षा तो वचनके अगोचर जानना और विधि अपेक्षा स्वसंवेदनगोचर जानना। इसप्रकार जीवका स्वरूप जानकर अनुभवगोचर करना। यह गाथा समयसार में ४६, प्रवचनसारमें १७२, नियमसारमें ४६, पंचास्तिकायमें १२७, धवला टीका पु० ३ पृ० २, लघु द्रव्यसंग्रह गाथा ५ आदि में भी है। इसका व्याख्यान टीकाकरने विशेष कहा है वह वहाँसे जानना चाहिये।। ६४।।
आगे जीवका स्वभाव ज्ञानस्वरूप भावना कहा, वह ज्ञान कितने प्रकारका भाना यह कहते हैं:---
भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्धं । भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ।। ६५।।
भावय पंचप्रकारं ज्ञानं अज्ञान नाशनं शीघ्रम। भावना भावितसहितः दिवशिवसुखभाजनं भवति।।६५।।
अर्थ:--हे भव्यजन! त यह ज्ञान पाँच प्रकारसे भा. कैसा है यह ज्ञान ? अज्ञान का नाश करने वाला है, कैसा होकर भा? भावना से भावित जो भाव उस सहित भा, शीघ्र भा, इससे तो दिव (स्वर्ग) और शिव (मोक्ष) का पात्र होगा।
भावार्थ:--यद्यपि ज्ञान जाननेके स्वभावसे एक प्रकारका है तो भी कर्मके
१ 'भायण' पाठान्तर 'भायणो'
तुं भाव झट अज्ञाननाशन ज्ञान पंचप्रकार रे! अ भावनापरिणत स्वरग-शिवसौख्यनुं भाजन बने। ६५।
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