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भावपाहुड ]
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भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो । कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ।। ७४ ।।
भावः अपि दिव्यशिवसोख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यंगालयभाजनं पापः ।। ७४ ।
अर्थ:: -- भाव ही स्वर्ग मोक्षका कारण है, और भाव रहित श्रमण पापस्वरूप है, तिर्यंचगतिका स्थान है तथा कर्ममलसे मलिन चित्तवाला है ।
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भावार्थ:-- भावसे शुद्ध है वह तो स्वर्ग - मोक्षका पात्र है और भावेस मलिन है वह तिर्यंचगतिमें निवास करता है ।। ७४ ।।
आगे फिर भावके फलका माहात्म्य कहते हैं:
खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला । चक्कहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभावेण ।। ७५ ।।
खचरामरमनुज करांजलिमालाभिश्व संस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधि: सुभावेन ।। ७५ ।।
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अर्थः--सुभाव अर्थात् भले भावसे, मंदकषायरूप विशुद्धभावसे, चक्रवर्ती आदि राजाओंकी विपुल अर्थात् बड़ी लक्ष्मी पाता है । कैसी है - - - खचर ( विद्याधर ), अमर (देव) और मनुज (मनुष्य) इनकी अंजुलिमाला ( हाथोंकी अंजुलि ) की पंक्तिसे संस्तुत (नमस्कारपूर्वक स्तुति करने योग्य ) है और यह केवल लक्ष्मी ही नहीं पाता है, किन्तु बोधि (रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग ) पाता है।
भावार्थ:-- विशुद्ध भावोंका यह माहात्म्य है ।। ७५ ।।
आगे भावोंके भेद कहते हैं:
छे भाव दिवशिवसौख्यभाजन; भाववर्जित श्रमण जे पापी करममळमलिनमन, तिर्यंचगतिनुं पात्र छे । ७४ ।
नर अमर - विद्याधर वडे संस्तुत करांजलिपंक्तिथी चक्री - विशाळविभूति बोधि प्राप्त थाय सुभावथी । ७५ ।
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