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भावपाहुड]
[१६९
उस आत्मामें आचरण करके रागद्वेषरूप न परिणमना सम्यकचारित्र है। इसप्रकार यह निश्चयरत्नत्रय है. मोक्षमार्ग है।
भावार्थ:--आत्माका श्रद्धान-ज्ञान-आचरण निश्चयरत्नत्रय है और बाह्यमें इसका व्यवहार - जीव अजीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान, तथा जानना और परद्रव्य परभावका त्याग करना इसप्रकार निश्चय-व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है। वहाँ निश्चय तो प्रधान है, इसके बिना व्यवहार संसार स्वरूप ही है। व्यवहार है वह निश्चय का साधनस्वरूप है, इसके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं है और निश्चय की प्राप्ति हो जाने के बाद व्यवहार कुछ नहीं है इसप्रकार जानना चाहिये।। ३१ ।।
आगे संसार में इस जीव ने जन्म मरण किये हैं वे कुमरण किये, अब सुमरण का उपदेश कते हैं:---
अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मतराई मरिओ सि। भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव!।। ३२।।
अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृतः असि। भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव!।। ३२।।
अर्थ:--हे जीव! इस संसार में अनेक जन्मान्तरोंमें अन्य कुमरण मरण जैसे होते हैं वैसे तू मरा। अब तू जिस मरण का नाश हो जाय इसप्रकार सुमरण भा अर्थात् समाधिमरण की भावना कर।
भावार्थ:--मरण संक्षेपसे अन्य शास्त्रोंमें सत्रह प्रकार के कहे हैं। वे इसप्रकार हैं--१ आविचिकामरण, २--तभवमरण,३--अवधिमरण, ४--आद्यानतमरण, ५--बालमरण, पंडितमरण, ७--आसन्नमरण, ८--बालपंडितमरण, ९--सशल्यमरण, १०--पलायमरण, ११-वर्शात्तमरण, १२--विप्राणमरण, १३--गृध्रपृष्ठमरण, १४--भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५-- इंगिनीमरण, १६--प्रायोपगमनमरण और १७--केवलिमरण, इसप्रकार सत्रह हैं।
[नोंध---* यहाँ ऐसा नहीं समझना कि प्रथम व्यवहार हो और पश्चात् निश्चय हो - किन्तु भूमिकानुसार प्रारम्भ से ही निश्चयव्यवहार साथमें होते है। निमित्तके बिना अर्थ शास्त्रमें जो कहा है उससे विरूद्ध निमित्त नहीं होता ऐसा समझना।]
हे जीव! कुमरण मरणथी तुं मर्यो अनेक भवो विषे; तुं भाव सुमरणमरणने जर-मरणना हरनारने। ३२।
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