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सामाइकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधः भणितः । तृतीयं च अतिथिपूजा चतुर्थं सल्लेखना अन्ते ।। २६ ।।
अर्थः--सामायिक तो पहला शिक्षाव्रत है, वैसे ही दूसरा प्रोषध व्रत है, तीसरा अतिथिका पूजन है, चौथा है अंतसमय संल्लेखना व्रत है।
भावार्थ:--यहाँ शिक्षा शब्दसे तो ऐसा अर्थ सूचित होता है कि आगामी मुनिव्रत की शिक्षा इनमें है, जब मुनि होगा तब इसप्रकार रहना होगा। सामायिक कहने से तो राग-द्वेष त्याग कर, सब गृहारंभसंबंधी क्रियासे निवृत्ति कर, एकांत स्थान में बैठकर प्रभात, मध्याह्न, अपराह्न कुछ काल की मर्यादा करके अपने स्वरूपका चिन्तवन तथा पंचपरमेष्ठीकी भक्तिका पाठ पढ़ना, उनकी वंदना करना इत्यादि विधान करना सामायिक है। इसप्रकार ही प्रोषध अर्थात् अष्टमी चौदसके पर्वोंमें प्रतिज्ञा करके धर्म कार्यों में प्रवर्तना प्रोषध है। अतिथि अर्थात् मुनियों की पूजा करना, उनको आहारदान देना अतिथिपूजन है। अंत समयमें काय और कषायको कृश करना, समाधिमरण करना अन्त संल्लेखना है, -- इसप्रकार चार शिक्षाव्रत हैं।
यहाँ प्रश्न--- तत्त्वार्थसूत्र में तीन गुणव्रतोंमें देशव्रत कहा और भोगोपभोग - परिमाणको शिक्षाव्रतों में कहा तथा संल्लेखनाको भिन्न कहा वह कैसे ?
[ अष्टपाहुड
इसका समाधान:--- यह विवक्षा का भेद है, यहाँ देशव्रत दिगव्रत में गर्भित है और संल्लेखनाको शिक्षाव्रतों में कहा है, कुछ विरोध नहीं है ।। २६ ।।
आगे कहते हैं कि संयमाचरण चारित्रमें श्रावक धर्मको कहा, अब यतिधर्मको कहते हैं
एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं ।
सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे ।। २७ ।।
एवं श्रावकधर्मं संयमचरणं उपदेशितं सकलम् । शुद्धं संयमचरणं यतिधर्म निष्फलं वक्ष्ये ।। २७ ।।
श्रावकधरमरूप देशसंयमचरण भाख्युं ओ रीते; यतिधर्म-आत्मक पूर्ण संयमचरण शुद्ध कहुं हवे । २७ ।
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