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भावपाहुड]
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पंचेन्द्रिय पशु - पक्षी - जलचर आदिमें परस्पर घात तथा मनुष्यादि द्वारा वेदना, भूख, तृषा, रोकना, बध-बंधन इत्यादि द्वारा दुःख पाये। इसप्रकार तिर्यंचगति में असंख्यात अनन्तकालपर्यंत दुःख पाये ।। १०।।
आगे मनुष्यगति के दुःखोंको कहते हैं:---
आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि। दुक्खाइं मणुयजम्मे पत्तो सि अणंतयं कालं।।११।।
आगंतुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि। दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोऽसि अनन्तकं कालं।। ११ ।।
अर्थ:--हे जीव! तुने मनुष्यगति में अनंतकाल तक आगंतुक अर्थात् अकस्मात् वज्रपातादिकका आ-गिरना, मानसिक अर्थात् मन में ही होने वाले विषयों की वांछा होना और तदनुसार न मिलना, सहज अर्थात् माता, पितादि द्वारा सहजसे ही उत्पन्न हुआ तथा रागद्वेषादिक से वस्तुके इष्ट-अनिष्ट मानने के दुःखका होना, शारीरिक अर्थात् व्याधि, रोगादिक तथा परकृत छेदन, भेदन आदिसे हुए दुःख ये चार प्रकार के और चार से इनको आदि लेकर अनेक प्रकार के दुःख पाये ।। ११ ।।
आगे देवगति के दुःखों को कहते हैं:---
सुरणिलयेसु सुरच्छरवि ओयकाले य माणसं तिव्वं। संपत्तो सि महाजस दु:खं सुहभावणारहिओ।।१२।।
सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्रम्। संप्राप्तोऽसि महायश! दुःखं शुभभावनारहितः।।१२।।
[* देहादिमें या बाह्य संयोगोंमें दुःख नहीं है किन्तु अपनी भूलरूप मिथ्यात्व रागादि दोषसे ही दुःख होता है, यहाँ निमित्त द्वारा उपादानका-योग्यताका ज्ञान करानेके लिये यह उपचरित व्यवहार से कथन है।]
तें सहज, कायिक, मानसिक, आगंतु-चार प्रकारनां, दुःखो लह्यां निःसीम काळ मनुष्य करो जन्ममां। ११ ।
सुर-अप्सराना विरहकाळे हे महायश! स्वर्गमां, शुभभावनाविरहितपणे तें तीव्र मानस दुःख सह्यां। १२ ।
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