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भावपाहुड]
[१५९
पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ। भाउण दुहं पत्तो कु भावणा भाव बीएहिं।।१४।।
पार्श्वस्थभावनाः अनादिकालं अनेकवारान्। भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावना भाव बीजैः।। १४ ।।
अर्थ:--हे जीव! तू पार्श्वस्थ भावना से अनादिकालसे लेकर अनन्तबार भाकर दुःखको प्राप्त हुआ। किससे दुःख पाया ? कुभावना अर्थात् खोटी भावना, उसका भाव वे ही हुए दुःखके बीज, उनसे दुःख पाया।
भावार्थ:--जो मुनि कहलावे और वास्तिका बाँधकर आजीविका करे उसे 'पार्श्वस्थ' वेशधारी कहते हैं। जो कषायी होकर व्रतादिकसे भ्रष्ट रहें, संघका अविनय करें, इस प्रकार के वेषधारी को 'कुशील' कहते हैं। जो वैद्यक ज्योतिषविद्या मंत्रकी आजिविका करे, राजादिकका सेवक होवे इसप्रकार के वेषधारीको ‘संसक्त' कहते हैं। जो जिनसूत्र से प्रतिकूल , चारित्र से भ्रष्ट आलसी, इसप्रकार वेषधारी को ‘अवसन्न' कहते हैं। गुरुका आश्रय छोड़कर एकाकी स्वच्छन्द प्रवर्ते, जिन आज्ञाका लोप करे, ऐसे वेषधारीको ‘मृगचारी' कहते हैं। इसकी भावना भावे वह दुःख ही को प्राप्त होता है।। १४ ।।
ऐसे देव होकर मानसिक दुःख पाये इसप्रकार कहते हैं:--
देवाण गुण विहई इड्ढी माहप्प बहुविहं दढुं। होऊण हीणदेवो पत्तो बहु माणसं दुक्खं ।।१५।।
देवानां गुणान् विभूती: ऋद्धीः माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा। भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दु:खम्।।१५।।
अर्थ:--हे जीव ! तू हीन देव होकर अन्य महद्धिक देवोंके गुण, विभूति और ऋद्धि का अनेक प्रकारका महात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुःखोंको प्राप्त हुआ।
बहु वार काळ अनादिथी पार्श्वस्थ-आदिक रूभावना, ते भावीने दुर्भावनाद्गक बीजथी दुःखो लह्यां। १४ ।
रे! हीन देव थई तुं पाम्यो तीव्र मानस दुःखने, देवो तणा गुण विभव, ऋद्धि, महात्म्य बहुविध देखीने। १५ ।
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