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भावपाहुड]
[१६३
आगे कहते हैं कि हे आत्मन्! तू जल थल आदि स्थानोंमें सब जगह रहा है:--
जलथलसिहिपवणंवरगिरिसरिदरितरुवणाई सवत्थ। वसिओ सि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पयसो।।२१।।
जलस्थलशिखिपवनांबरगिरिसरिहरीतरुवनादिषु सर्वत्र। उषितोऽसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः।। २१ ।।
अर्थ:--हे जीव! तू जलमें, थल अर्थात् भूमिमें, शिखि अर्थात् अग्निमें, पवन में, अम्बर अर्थात् आकाश में, गिरि अर्थात् पर्वतमें, सरित् अर्थात् नदीमें, दरी पर्वतकी गुफा में, तरु अर्थात् वृक्षोंमें, वनोंमें और अधिक क्या कहें सब ही स्थानोंमें, तीन लोकमें अनात्मवश अर्थात् पराधीन होकर बहुत काल तक रहा अर्थात् निवास किया।
भावार्थ:-- निज शुद्धात्माकी भावना बिना कर्म के आधीन होकर तीन लोकमें सर्व दुःख सहित सर्वत्र निवास किया।। २१ ।।
आगे कहते हैं कि हे जीव! तूने इस लोकमें सर्व पुद्गल भक्षण किये तो भी तृप्त नहीं हुआ:--
गसियाइं पुग्गलाइं भुवणोदरवत्तियाइं सव्वाइं। पत्तो सि तो ण तितिं 'पुणरुत्तं ताइं भुजंतो।। २२।।
ग्रसिताः पुद्गलाः भवनोदरवर्तिनः सर्वे। प्राप्तोऽसि तन्न तृप्तिं पुनरुक्तान तान भुंजानः।। २२।।
------------------------ * पाठान्तर 'वणाई', 'वणाई। १ मुद्रित संस्कृत प्रति में 'पुणरूवं' पाठ है जिसकी संस्कृतमें 'पुनरूप' छाया है।
जल-थल-अनल-पवने, नदी-गिरि-आभ-वन-वृक्षादिमां वण आत्मवशता चिर वस्यो सर्वत्र तुं त्रण भुवनमां। २१।
भक्षण कर्यां तें लोकवर्ती पुदगलोने सर्वने, फरी फरी कर्यां भक्षण छतां पाम्यो नहीं तुं तृप्तिने। २२ ।
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