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[ अष्टपाहुड
अर्थः--उपसर्ग अथवा देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत उपद्रव और परीषह अर्थात् दैव–कर्मयोगसे आये हुए बाईस परीषहोंको समभावोंसे सहना इसप्रकार प्रवज्यासहित मुनि हैं, वे जहाँ अन्य जन नहीं रहते ऐसे निर्जन वनादि प्रदेशोंमें सदा रहते हैं, वहाँ भी शिलातल, काष्ठ, भूमितलमें रहते हैं, इन सब ही प्रदेशोंमें बैठते हैं, सोते हैं, 'सर्वत्र' कहने से वन में रहें और किंचित्कालनगर में रहें तो ऐसे ही स्थान पर रहें।
भावार्थ:--जैनदीक्षा वाले मुनि उपसर्ग - परीषहों में समभाव रखते हैं, और जहाँ सोते हैं, बैठते हैं, वहाँ निर्जन प्रदेश में शिला, काष्ठ, भूमिमें ही बैठते हैं, इसप्रकार नहीं है कि अन्यमन भेषीवत् स्वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार जानना चाहिये ।। ५६ ।।
आगे अन्य विशेष कहते हैं:
पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ । सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५७ ।।
पशुमहिलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रश्या ईदृशी भणिता ।। ५७ ।।
अर्थ:--जिस प्रवज्या में पशु - तिर्यंच, महिला (स्त्री), षंढ ( नपुन्सक), इनका संग तथा
कुशील (व्यभिचारी) पुरुष का संग नहीं करते हैं, स्त्री कथा, राजा कथा, भोजन कथा और चोर इत्यादि की कथा जो विकथा है उनको नहीं करते हैं, तो क्या करते हैं ? स्वाध्याय अर्थात् जिनवचनोंका पठन-पाठन और ध्यान अर्थात् धर्म शुक्ल ध्यान इनसे युक्त रहते
शास्त्र
। इसप्रकार प्रवज्या जिनदेवने कही है। 1
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भावार्थ:--जिनदीक्षा लेकर कुसंगति करे, विकथादिक करे और प्रमादी रहे तो दीक्षा का अभाव हो जाये, इसलिये कुसंगति निषिद्ध है। अन्य भेषकी तरह यह भेष नहीं है। यह मोक्ष मार्ग है, अन्य संसारमार्ग हैं ।। ५७ ।।
आगे फिर विशेष कहते हैं:
स्त्री - षंढ - पशु - दुःशीलनो नहि संग, नहि विकथा करे, स्वाध्याय - ध्याने युक्त छे, -दीक्षा कही आवी जिने । ५७ ।
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