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बोधपाहुड]
आरंभी - परिग्रही के भाव तो पूजा, प्रतिष्ठादिक बड़े अरंभ में ही विशेष अनुराग सहित लगते हैं। जो गृहस्थाचार के बड़े अरम्भ से विरक्त होगा सो उसे त्यागकर अपना पद बढ़ावेगा, जब गृहस्थाचार के बड़े आरंभ छोड़ेगा तब उसी तरह धर्मप्रवृत्तिके बड़े आरम्भ पद के अनुसार घटावेगा। मुनि होगा तब आरम्भ क्यों करेगा? अतः तब तो सर्वथा आरम्भ नहीं करेगा, इसलिये मिथ्यादृष्टि बाह्यबुद्धि जो बाह्य कार्यमात्र ही को पुण्य - पाप मोक्षमार्ग समझते हैं उनका उपदेश सुन कर अपने को अज्ञानी नहीं होना चाहिये। पुण्य - पापके बंधमें शुभाशुभ ही प्रधान हैं और पुण्य-पापरहित मोक्षमार्ग है, उसमें सम्यग्दर्शनादिकरूप आत्मपरिणाम प्रधान है। [ हेयबुद्धि सहित] धर्मानुराग मोक्षमार्ग का सहकारी है और (आंशिक वीतराग भाव सहित) धर्मानुराग के तीव्र - मंदके भेद बहुत हैं, इसलिये अपने भावोंको यथार्थ पहिचानकर अपनी पदवी, सामर्थ्य पहिचान - समझकर श्रद्धान-ज्ञान और उसमें प्रवृत्ति करना; अपना भला - बुरा अपने भावों के आधीन है, बाह्य परद्रव्य तो निमित्त मात्र है, उपादान कारण हो तो निमित्त भी सहकारी हो और उपादान न हो तो निमित्त कुछ भी नहीं करता है, इसप्रकार इस बोधपाहुड का आशय जानना चाहिये।
इसको अच्छी तरह समझकर आयतनादिक जैसे कहे वैसे और इनका व्यवहार भी बाह्य वैसी ही तथा चैत्यगृह, प्रतिमा, जिनबि वैसा ही जानकर श्रद्धान और प्रवृत्ति करनी। अन्यमति अनेक प्रकार स्वरूप बिगाड़ कर प्रवृत्ति करते हैं उनकी बुद्धि कल्पित जानकर उपासना नहीं करनी। इस द्रव्यव्यवहार का प्ररूपण प्रवज्या के स्थल में आदि से दूसरी गाथा में बिंब चैत्यालयत्रिक और जिनभवन ये भी मुनियोंके ध्यान करने योग्य हैं इसप्रकार कहा है सो गृहस्थ जब इसकी प्रवृत्ति करते हैं यह ये मुनियों के ध्यान करने योग्य होते हैं; इसलिये जो जिनमन्दिर, प्रतिमा, पूजा, प्रतिष्ठा आदिक के सर्वथा निषेध करने वाले वह सर्वथा एकान्तीकी तरह मिथ्यादृष्टि हैं, उनकी संगति नहीं करना। [ मूलाचार पृ० ४९२ अ० १० गाथा ९६ में कहा है कि '' श्रद्धा भ्रष्टोंके संपर्ककी अपेक्षा (गृह में) प्रवेच करना अच्छा है क्योंकि विवाह में मिथ्यात्व नहीं होगा, परन्तु ऐसे गण तो सर्व दोषोंके आकर हैं उसमें मिथ्यात्वादि दोष उत्पन्न होते हैं अतः इनसे अलग रहना ही अच्छा है'' ऐसा उपदेश है।
१ गाथा २ में बिंबकी जगह 'वच' ऐसा पाठ है।
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