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चारित्रपाहुड]
[९९ अर्थ:--जो पुरुष ज्ञानी है और चारित्र सहित है वह अपनी आत्मामें परद्रव्यकी इच्छा नहीं करता है, परद्रव्यमें राग-द्वेष-मोह नहीं करता है। वह ज्ञानी जिसकी उपमा नहीं है इसप्रकार, अविनाशी मुक्तिके सुखको पाता है। हे भव्य! तू निश्चय से इसप्रकार जान। यहाँ ज्ञानी होकर हेय-उपादेयको जानकर, संयमी बनकर परद्रव्यको अपने में नहीं मिलाता है वह परम सुख पाता है, -इसप्रकार बताया है।। ४३।।
आगे इष्ट चारित्र के कथनका संकोच करते हैं:--
एवं संखेवेण य भणियं णाणेण वीयराएण। सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं ।। ४४।।
एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण। सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम्।। ४४।।
अर्थ:--एवं अर्थात् ऐसे पूर्वोक्त प्रकार संक्षेप से श्री वीतरागदेवने ज्ञानके द्वारा कहे इसप्रकार सम्यक्त्व और संयम इन दोनोंके आश्रय चारित्र सम्यक्त्वचरणस्वरूप और संयमचरणस्वरूप दो प्रकारसे उपदेश किया है, आचार्यने चारित्र के कथन को संक्षेपरूप से कह कर संकोच किया है।। ४४।।
आगे इस चारित्रपाहुडको भाने का उपदेश ओर इसका फल कहते हैं:--
भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव। लहु चउगइ चइऊणं अइरेणऽपुणब्भवा होई।।४५।।
भावयत भावशुद्धं स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव। लघु चतुर्गती: व्यक्त्वा अचिरेण अपुनर्भवाः भवत।।४५।।
अर्थ:--यहाँ आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों! यह चरण अर्थात् चारित्रपाहुड हमने स्फुट प्रगट करके बनाया है उसको तुम अपने शुद्ध भाव से भाओ। अपने भावोंमें
वीतरागदेवे ज्ञानथी सम्यकत्व-संयम-आश्रये जे चरण भाख्यं ते कडुं संक्षेपथी अहीं आ रीते। ४४।
भावो विमळ भावे चरणप्राभूत सुविरचित स्पष्ट जे, छोडी चतुर्गति शीघ्र पामो मोक्ष शाश्वतने तमे। ४५।
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