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बोधपाहुड]
[१०७
सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं। णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा।।१०।।
स्वपरा जंगमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम्। निर्ग्रन्थ वीतरागा जिनमार्गे ईद्दशी प्रतिमा।।१०।।
अर्थ:--जिनका चारित्र, दर्शन-ज्ञानसे शुद्ध निर्मल है, उनकी स्व-परा अर्थात् अपनी और परकी चलती हुई देह है, वह जिनमार्ग में ‘जंगम प्रतिमा' है; अथवा स्वपरा अर्थात् आत्मासे 'पर' यानी भिन्न है ऐसी देह है। वह कैसी है ? जिसका निर्ग्रन्थ स्वरूप है, कुछ भी परिग्रह का लेश भी नहीं है ऐसी दिगम्बर मुद्रा है। जिसका वीतराग स्वरूप है, किसी वस्तुसे राग-द्वेष-मोह नहीं है, जिनमार्ग में ऐसी प्रतिमा' कही हैं। जिनके दर्शन-ज्ञान से निर्मल चारित्र पाया जाता है, इसप्रकार मुनियोंकी गुरु-शिष्य अपेक्षा अपनी तथा परकी चलती हुई देह निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है, वह जिनमार्ग में प्रतिमा' हैं अन्य कल्पित है और घातुपाषाण आदिसे बनाये हुए दिगम्बर मुद्रा स्वरूप को 'प्रतिमा' कहते हैं जो व्यवहार है। वह भी बाह्य आकृति तो वैसी ही हो वह व्यवहार में मान्य है।। १०।।
आगे फिर कहते हैं:--
जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं। सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा।।११।।
यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम्। सा भवति वंदनीया निर्ग्रन्था संयता प्रतिमा।। ११ ।।
अर्थ:--जो शुद्ध आचरण का आचरण करते हैं तथा सम्यग्ज्ञानसे यथार्थ वस्तुको जानते हैं और सम्यग्दर्शनसे अपने स्वरूपको देखते हैं इसप्रकार शुद्धसम्यक्त्व जिनके पाया जाता है ऐसी निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है वह वंदन करने योग्य है।
दग-ज्ञान-निर्मळ चरणधरनी भिन्न जंगम काय जे. निग्रंथ ने वीतराग, ते प्रतिमा कही जिनशासने। १०।
जाणे-जुए निर्मळ सुदृग सह, चरण निर्मळ आचरे, ते वंदनीय निर्ग्रन्थ-संयतरूप प्रतिमा जाणजे। ११ ।
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