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बोधपाहुड]
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शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा श्मसानवासे वा। गिरिगुहायां गिरिशिखरे वा, भीमवने अथवा वसतौ वा।। ४२।।
स्ववशासक्तं तीर्थं वचश्चैत्यालयत्रिकं च उक्तैः। जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति।। ४३ ।।
पंचमहाव्रतयुक्ताः पंचेन्द्रियसंयता: निरपेक्षाः। स्वाध्यायध्यानयुक्ताः मुनिवरवृषभाः नीच्छन्ति।। ४४ ।।
अर्थ:--सूना घर, वृक्षका मूल , कोटर, उद्यान वन, श्मशानभूमि, पर्वतकी गुफा, पर्वतका शिखर, भयानक वन और वस्तिका इनमें दीक्षासहित मुनि ठहरें। ये दीक्षायोग्य स्थान
स्ववशासक्त अर्थात् स्वाधीन मुनियोंसे आसक्त जो क्षेत्र उन क्षेत्रोंमें मुनि ठहरे। तथा जहाँ से मोक्ष पधारें इसप्रकार के तीर्थस्थान और वच, चैत्य, आलय इसप्रकार त्रिक जो पहिले कहा गया है अर्थात् आयतन आदिक; परमार्थरूप संयमी मुनि, अरहंत, सिद्ध स्वरूप उनके नामके अक्षररूप मंत्र तथा उनकी आज्ञारूप वाणीको ‘वच' कहते हैं तथा उनके आकार धातु - पाषाण की प्रतिमा स्थापनको ‘चैत्य' कहते हैं और जब प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जिसमें सथापित किये जाते हैं इसप्रकार 'आलय' - मंदिर, यंत्र या पुस्तकरूप ऐसा वच, चैत्य तथा आलयका त्रिक है अथवा जिनभवन अर्थात् अकृत्रिम चैत्यालय मंदिर इसप्रकार आयतनादिक उनके समान ही उनका व्यवहार, उसे जिनमार्ग में जिनवर देव 'बेध्य' अर्थात् दीक्षासहित मुनियोंके ध्यान करने योग्य, चिन्तन करने योग्य कहते हैं।
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मुनि शून्यगृह, तरूतल वसे, उद्यान वा समशानमां, गिरिकंदरे, गिरिशिखर पर, विकराळ वन वा वसतिमां। ४२ ।
निजवश श्रमणना वास, तीरथ, शास्त्र चैत्यालय अने जिनभवन मुनिनां लक्ष्य छे-जिनवर कहे जिनशासने। ४३।
पंचेन्द्रियसंयमवंत, पंचमहाव्रती, निरपेक्ष ने स्वाध्याय-ध्याने युक्त मुनिवरवृषभ इच्छे तेमने। ४४ ।
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