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। अष्टपाहुड
सो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ णाणं च। सो देइ जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वमज्जा।।२४।।
स: देवः यः अर्थं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च। सः ददाति यस्य अस्ति तु अर्थ: धर्म: च प्रव्रज्या।। २४।।
अर्थ:--देव उसको कहते हैं जो अर्थ अर्थात् धन, काम अर्थात् इच्छा का विषय-ऐसा भोग और मोक्ष का कारण ज्ञान-इन चारोंको देवे। यहाँ न्याय ऐसा है कि जो वस्तु जिसके पास हो सो देवे और जिसके पास न हो सो कैसे देवे? इस न्याय से अर्थ, धर्म, स्वर्गादिके भोग और मोक्ष सुख का कारण प्रवज्या अर्थात् दीक्षा जिसका हो उसको 'देव' जानना।। २४ ।।
आगे धर्मादि का स्वरूप कहते हैं, जिनके जानने से देवादि का स्वरूप जाना जाता है:
धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं।। २५।।
धर्म: दयाविशुद्धः प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता। देवः व्यपगतमोह: उदयकरः भव्यजीवानाम्।।२५।।
अर्थ:--जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह से रहित है वह प्रवज्या है, जिसका मोह नष्ट हो गया है वह देव है--यह भव्य जीवों के उदय को करने वाला है।
भावार्थ:--लोक में यह प्रसिद्ध है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुष के प्रयोजन हैं। उनके लिये पुरुष किसी की वन्दना करता है, पूजा करता है और न्याय यह है कि जिसके पास जो वस्तु हो वह दूसरे को देवे, न हो तो कहाँ से लावे ? इसलिये यह चार पुरुषार्थ जिन देव के पाये जाते हैं।
ते देव, जे सुरीते धरम ने अर्थ, काम, सुज्ञान दे; ते वस्तु दे छे ते ज, जेने धर्म-दीक्षा-अर्थ छ। २४ ।
ते धर्म जेह दयाविमळ, दीक्षा परिग्रहमुक्त जे, ते देव जे निर्मोह छे ने उदय भव्य तणो करे। २५ ।
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