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। अष्टपाहुड
आगे पाँच अपरिग्रह महाव्रत की भावना कहते हैं:--
अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु। रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होति।।३६ ।। अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगंधेषु। रागद्वेषादीनां परिहारो भावनाः भवन्ति।। ३६ ।।
अर्थ:--शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध ये पाँच इन्द्रियों के विषय समनोज्ञ अर्थात् मन को अच्छे लगने वाले और अमनोज्ञ अर्थात् मन को बुरे लगने वाले हों तो इन दोनों में राग द्वेष आदि न करना परिग्रहत्यागवत की ये पाँच भावना है।
भावार्थ:--पाँच इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वर्ण, शब्द ये हैं, इनमें इष्टअनिष्ट बुद्धिरूप राग-द्वेष नहीं करे तब अपरिग्रहव्रत दृढ़ रहता है इसलिये ये पाँच भावना अपरिग्रह महाव्रत की कही गई हैं।। ३६ ।।
आगे पाँच समितियों को कहते हैं:--
इरिया भासा एसण जा सा आदाण चे व णिक्खेवो। 'संजमसोहिणिमित्तं खंति जिणा पंच समिदीओ।।३७।।
ईर्या भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः। संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पंच समितीः ।। ३७।।
अर्थ:--ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ संयमकी शुद्धताके लिये कारण हैं, इसप्रकार जिनदेव कहते हैं।
१ पाठान्तर :- संजमसोहिणिमित्ते।
मनहर-अमनहर स्पर्श-रस-रूप-गंध तेमज शब्दमा, करवा न रागविरोध, व्रत पंचम तणी ओ भावना। ३६ ।
ईर्या, सुभाषा, अषणा, आदान ने निक्षेप-ओ, संयम तणी शुद्धि निमित्ते समिति पांच जिनो कहे। ३७।
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