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चारित्रपाहुड]
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आगे तीन गुणव्रतों को कहते हैं:--
दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थंइंडस्स वज्जणं बिदियं। भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि।। २५।।
दिग्विदिग्मानं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम्। भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि ।। २५ ।।
अर्थ:--दिशा - विदिशामें गमनका परिमाण वह प्रथम गुणव्रत है, अनर्थदण्डका वर्जना द्वितीय गुणव्रत है, और भोगोपभोगका परिमाण तीसरा गुणव्रत है, ---इसप्रकार ये तीन गुणव्रत हैं।
भावार्थ:--यहाँ गुण शब्द तो उपकारका वाचक है, ये अणुव्रतोंका उपकार करते हैं। दिशा - विदिशा अर्थात् पूर्व दिशादिक में गमन करने की मर्यादा करे। अनर्थदण्ड अर्थात् जिन कार्यों में अपना प्रयोजन न सधे इसप्रकार पापकार्यों को न करें। यहाँ को पूछे-प्रयोजन के बिना तो कोई भी जीव कार्य नहीं करता है, कुछ प्रयोजन विचार करके ही करता है फिर अनर्थदण्ड क्या ? इसका समाधान - समयग्दृष्टि श्रावक होता है वह प्रयोजन अपने पदके योग्य विचारता है, पद के सिवाय सब अनर्थ है। पापी पुरुषोंके तो सब ही पाप प्रयोजन है, उनकी क्या कथा। भोग कहनेसे भोजनादिक और उपभोग कहने से स्त्री, वस्त्र, आभूषण, वाहनादिकोंका परिमाण करे---इसप्रकार जानना।।२५।।
आगे चार शिक्षा व्रतों को कहते हैं:--
सामाइयं च पढमं बिदियं च तहेव पोसहं भणियं। तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते।।२६ ।।
दिशविदिशगति-परिमाण होय, अनर्थदंड परित्यजे, भोगोपभोग तणुं करे परिमाण, -गुणव्रत त्रण्य छ। २५ ।
सामायिकं, व्रत प्रोषधं, अतिथि तणी पूजा अने, अंते करे सल्लेखना-शिक्षाव्रतो ओ चार छ। २६ ।
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