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पात्रकेसरोकी कथा प्रातःकाल और सायंकाल नियमपूर्वक अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करते थे। उनमें एक विशेष बात थी, वह यह कि वे जब राजकार्य करनेको राजसभामें जाते, तब उसके पहले कौतुहलसे पार्श्वनाथ जिनालयमें श्रीपार्श्वनाथकी पवित्र प्रतिमाका दर्शन कर जाया करते थे।
एक दिनकी बात है कि वे जब अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करके जिनमन्दिरमें आये तब उन्होंने एक चारित्रभूषण नामके मुनिराजको भगवान्के सम्मुख देवागम नामका स्तोत्रका पाठ करते देखा । उन सबमें प्रधान पात्रकेसरीने मुनिसे पूछा, क्या आप इस स्तोत्रका अर्थ भी जानते हैं ? सुनकर मुनि बोले—मैं इसका अर्थ नहीं जानता । पात्रकेसरी फिर बोले-साधुराज, इस स्तोत्रको फिर तो एक बार पढ़ जाइये। मुनिराजने पात्रकेसरीके कहे अनुसार धीरे-धीरे और पदान्तमें विश्रामपूर्वक फिर देवागमको पढ़ा, उसे सुनकर लोगोंका चित्त बड़ा प्रसन्न होता था।
पात्रकेसरीकी धारणाशक्ति बड़ी विलक्षण थी। उन्हें एक बारके सुननेसे ही सबका सब याद हो जाता था। देवागमको भी सुनते हो उन्होंने याद कर लिया। अब वे उसका अर्थ विचारने लगे। उस समय दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयोपशमसे उन्हें यह निश्चय हो गया कि जिन भगवान्ने जो जीवाजीवादिक पदार्थोंका स्वरूप कहा है, वही सत्य है और सत्य नहीं है। इसके बाद वे घरपर जाकर वस्तुका स्वरूप विचारने लगे। सब दिन उनका उसी तत्त्वविचार में बीता। रातको भी उनका यही हाल रहा। उन्होंने विचार किया-जैनधर्ममें जीवादिक पदार्थोंको प्रमेय-जानने योग्य माना है और तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञानको प्रमाण माना है। पर क्या आश्चर्य है कि अनुमान प्रमाणका लक्षण कहा ही नहीं गया। यह क्यों ? जैनधर्मके पदार्थो में उन्हें कुछ सन्देह हुआ, उससे उनका चित्त व्यग्र हो उठा । इतनेहीमें पद्मावती देवीका आसन कम्पायमान हुआ। वह उसी समय वहाँ आई और पात्रकेसरीसे उसने कहा-आपको जैनधर्मके पदार्थों में कुछ सन्देह हुआ है, पर इसकी आप चिन्ता न करें। आप प्रातःकाल जब जिनभगवान्के दर्शन करनेको जायँगे तब आपका सब सन्देह मिटकर आपको अनुमान प्रमाण का निश्चय हो जायगा। पात्रकेसरीसे इस प्रकार कहकर पद्मावतो जिनमन्दिर गई और वहाँ पार्वजिनकी प्रतिमाके फणपर एक श्लोक लिखकर वह अपने स्थानपर चली गई। वह श्लोक यह था
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।
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