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अनेकान्त/14 लगना तो दूर रहा डूबकर मर ही जावेगा। वैसे ही शुद्धोपयोगी बनने केपूर्व यदि साधक शुभोपयोग को त्याग देगा तो अशुभोपयोगी बनकर नरकादि दुर्गतियों का ही पात्र होगा।
अशुभ उपयोग एवं पाप क्रियाओं का त्याग कर शुभोपयोग मयी धर्म क्रियाओं का करना और तत्पूर्वक शुद्धोपयोग को प्राप्त करने का पुरूषार्थ करना ही राजमार्ग है। जैसा सभी आचार्यों ने जिनवाणी के अनुसार प्रतिपालन किया है। जब तक कि शुद्धोपयोग की प्राप्ति न हो जो कि मुनिराजों को सातवें गुण स्थान में होती है तब तक चाहकर उत्साह पूर्वक शुभोपयोग एव पुण्य क्रिया करने में ही साधक का आत्महित सन्निहित है। यह अवश्य है कि केवल शुभोपयोग एवं पुण्यक्रियाएं जब तक शुद्धोपयोग की प्राप्ति न होगी-मोक्ष नहीं दिलाएँगी और वे सद्गति का ही पात्र बनाएगी-जबकि उनका परित्याग कर अशुभोपयोग एवं पाप क्रियाएं नरकादि गतियो का ही पात्र बनाती है। अत: शुद्धोपयोग की वृद्धि के पूर्व जिनसे अभीपाप एवं विषम वासनाएँ नहीं छूटी उनसे वासनाएँ तथा पाप क्रियाएं न छुडवाकर पुण्य क्रियाएं छुडवाना या सर्वथा हेय बताकर घृणा करवाना श्रेयस्कर नहीं होने से मुमुक्षु को पहिले पाप क्रियाएं छोडने एवं पूजन दान व ब्रतादि पालन करने का उपदेश देना उचित है। शुद्धोपयोगी बनने पर पुण्य क्रियाएँ स्वयं छूट जाएँगी। पंडित प्रवर टोडरमल जी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ में शुद्धोपयोगी न बन पाने पर शुभोपयोग को चाह कर अपनाने का निर्देश दिया है।
-549, सुदामानगर इन्दौर (म.प्र)-452009