Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 96
________________ अनेकान्त/१५ है। मध्य मे औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक मे से ७वे गुणस्थान में सामान्य रूप से व आगे क्षायोपशामिक और उपशमश्रेणि और क्षपक श्रेणि मे उपशम एव क्षायिक भाव सिद्ध होते है। औपशामिक आदि तीन भाव सम्यक्त्व के भेद यहाँ नही माने जाते । यदि उपर्युक्त उद्धरणो मे से पहला उद्धरण ४ गुणस्थान का ही होता तो देशघाति, सर्वघाति और मोह आदि कर्म सामान्य सम्यकदर्शन ज्ञानानुचरण रूपेण तथा सम्यक्त्वादि शब्दो का अधिक प्रयोग नहीं किया जा सकता । अनुचरण मे “श्री मद् रायचन्द्र के सर्वगुणाशा ते समकित” समस्त गुण एकदेश रूप में सामान्यतया सम्यक्त्व के साथ समीचीन हो जाते है। इसमे चारित्र भी आ गया। परन्तु इसे अनतानुबन्धी के अभाव (सम्यक्त्वाचरण) के साथ अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान के अभाव के बिना चारित्रसज्ञा प्राप्त नहीं होती। (गोमट्टसार, जीवकाण्ड), वीतराग शब्द जो दूसरे शब्द मे रेखाकित किया गया है वह आचार्य जयसेन ने वीतराग सम्यक्त्व के साथ चारित्र की वीतराग सज्ञा मानकर ७वे गुणस्थान से सिद्ध किया है। उनके मध्य मे वहाँ वीतराग सम्यक्त्व ५वे गुणस्थान से ऊपर टीका मे सर्वत्र है-(गाथा २१२, २१३ परमाणुमित्तय पि हु) पहले मिथ्यात्व गुण स्थान से सम्यक्त्व के साथ ७वॉ गुण स्थान होता है-इस दृष्टि से भी हमारा प्रथम उद्धरण के सबध मे कथन उचित है। क्योकि भव्यत्व की व्यक्तता केवल चतुर्थ गुणस्थान मे बताना उचित नहीं है। उसकी व्यक्ति (प्रकटपना) चौदहवे गुणस्थान तक होती है। चौथे गुणस्थान को महत्व देने के साथ ही प्रवचनो मे श्रावक मुनिव्रतो की आलोचना भी की गई है। यहाँ अप्रमत्व (सॉतवा गुणस्थान) मुनिदीक्षा के बाद ही भव्यत्व की साक्षात् रूप से अभिव्यक्ति होती है-यह आचार्य का अभिप्राय है। दूसरे उद्धरण से प्रथम उद्धरण का समर्थन होता है। इस सन्दर्भ मे करणानुयोग ग्रथ गोम्मट्सार, कर्मकाड-गाथा स० ३३५-३३६ एव ५५७ दृष्टव्य है जिसमे सातवे गुणस्थान से ही प्रथम उद्धरण भी सम्बद्ध है-यह स्पष्ट हो जायेगा। प्रथम गुणस्थान से सीधा सातवे गुणस्थान मे जो जाता है उसका यह विवरण है। इस दृष्टि से अभेद रत्नत्रय और शुद्धोपयोग तथा महाव्रती (मुनि) का सम्बन्ध सहज ही समझ मे आ जाता है। ७वे गुणस्थान मे अनतानुबधी को अप्रत्याख्यान आदि बारह कषाय रूप मे परिणित (विसयोजन) कर बाद मे दर्शनमोह की तीनो प्रकृतियो का क्षय करते है। फिर आठवे गुणस्थान मे उपशम या क्षपक श्रेणी माढते है। इस तरह

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158