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अनेकान्त/१३
"सु" विभक्ति चिन्ह मिलते हैं। शेष रूपों में से कुछ यहाँ उपलब्ध नहीं
है और अन्य कतिपय सज्ञारूपों जैसे ही हैं। ६ नियमसार के धातुरूपों मे अन्य पुरूष एकवचन मे “इ” एवं "दि"
दोनो प्रत्ययों का प्रयोग उपलब्ध होता है। हस्तलिखित प्रतियां भी इसका समर्थन करती है। सस्कृत के आत्मनेपद के रूपों की भाँति यहाँ "णिवत्तदे" तथा अन्तिम'' दा लोप वाले "गेण्हए" एवं पडिवज्जए"
रूपों को भी देखा जा सकता है। ७ धातुरूपों की विविधता "झादि, झायदि", "हवदि, हवेइ, होइ, होदि" ___ और "कुणदि", कुणइ, कुव्वइ" जैसे रूपों मे देखी जा सकती है। ८. भविष्यत काल अन्य पुरूष एकवचन का ''काहदि" रूप यहाँ आया है।
कतिपय सम्पादकों ने इसे वर्तमान का रूप मानकर "क्रियते" रूपान्तर किया है, जो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। ९ आज्ञार्थक धातुरूपों मे एक ही धातु के निम्नलिखित रूप प्रयोग ध्यान देने योग्य हैं- जाण, जाणह, जाणीहि, जाणेहि, विजाणहि
और वियाणहि। १०. आज्ञार्थक "जाण' के ही अर्थ में यहाँ "विणु' का प्रयोग भी उपलब्ध
११. सम्बन्ध कृदन्त के ऊण, तूण, च्चा, त्ता और त्तु ये पाँच प्रत्यय दृष्टिगोचर होते है।
प्राकृत जैन शास्त्र एवं अहिंसा शोध संस्थान
वैशाली-८४४१२८ (बिहार)