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अनेकान्त/२९
इसलिए वैद्य के लिए उचित है कि उसे काम और मोह के वशीभूत होकर, अर्थ (धर्म) के लोभ से, मित्र के प्रति अनुराग भाव से, शत्रु के प्रतिरोध (क्रोध) भाव से, बंधुबुद्धि (ममत्वभाव) से तथा इसी प्रकार के अन्य मनोविकार से प्रेरित होकर अथवा अपने सत्कार के निमित्त या अपने यश अर्जन के लिए चिकित्सा नहीं करना चाहिये । विद्वान वैद्य कारुण्य बुद्धि (रोगियों के प्रति दया भाव) से परलोक साधन के लिए तथा अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय करने के लिए चिकित्सा कार्य करें। ___ जिन शासन मे ऐसी भी क्रियाविधि उपादेय मानी गई है जो कर्म क्षय करने मे साधनभूत हो । अन्य शुभकर्म भी आचरणीय बतलाए गए है, किन्तु उनसे मात्र शुभ कर्म का बध होकर पुण्य का संचय होता है और उससे परलोक में सुखप्राप्ति होती है उससे कर्मो का क्षय नही होने से बन्धन से मुक्ति या आत्म कल्याण नही होता है। चिकित्सा कार्य मे यदि कारुण्य भाव निहित हो तो उससे कर्म क्षय होता है ऐसा विद्वानो का अभिमत है, जैसा कि उपर्युक्त वचन से सुस्पष्ट है।
कोई भी वैद्य अपने उच्चादर्श, चिकित्सा कार्य मे नैपुण्य, शास्त्रीय ज्ञान की गभीरता, मानवीय गुणो की सम्पन्नता, नि स्वार्थ सेवाभाव आदि विशिष्ट गुणो से ही समाज में विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है। यही उसकी स्वय की प्रतिष्ठा, उसके व्यवसाय की प्रतिष्ठा और समष्टिरूपेण देश की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है। वैद्यत्व की सार्थकता भी वस्तुत इसी में निहित है। जिसका वैद्यत्व एव वैद्यक व्यवसाय परोपकार की पवित्र भावना से प्रेरित न हो उसका वैद्य होना ही निरर्थक है। क्योंकि वैद्य का उच्चादर्श रोगी को भीषण व्याधि से मुक्त कराकर उसे आरोग्य लाभ प्रदान करना है। महर्षि अग्निवेश ने भी इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है -
दारुणैः कृष्यमाणानां गदैर्वैवस्वताक्षयम्। छित्वा वैवस्वतान् पाशान् जीवितं यः प्रयच्छति।। धमार्थदातासदृशस्तस्य नेहोपलभ्यते। न हि जीवितदानाद्धि दानमन्यद्विशिष्यते।।
-चरक सहिता, चिकित्सास्थान १/४/६०-६१