Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 150
________________ अनेकान्त/३१ नार्थार्थं नापि कामर्थमथ भूतदयां प्रति। वर्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमतिवर्तते।। कुर्वते ये तु वृत्यर्थं चिकित्सापण्यविक्रयम्। ते हित्वा कांचनं राशिं पांशुराशिमुपासते।। -चरक संहिता, चिकित्सा स्थान १/३/५७-५९ अर्थात् धर्म मे तत्पर रहने वाले, अक्षर स्थान (ब्रह्मप्राप्ति) की इच्छा रखने वाले महर्षियों के द्वारा धर्म के लिए आयुर्वेद का प्रकाशन किया गया। (उपदेश दिया गया) अत चिकित्सा करते हुए जो वैद्य अर्थ (धन) और काम (अपने विशिष्ट मनोरथ) को ध्यान में न रखते हुए केवल प्राणियों पर दया भाव पूर्वक चिकित्सा में तत्पर होता है वह चिकित्सा के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठता को प्राप्त करता है। अर्थात् वह सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक कहलाता है। जो चिकित्सक मात्र अपनी जीविका के लिए उस चिकित्सा को व्यवसाय बनाकर उसे बाजार मे बेचते है वे स्वर्णराशि को छोड़कर धूलि राशि को एकत्र करते है। आयुर्वेद शास्त्र में भूतदया (प्राणिमात्र के प्रति दया) को सर्वोपरि माना गया है। उसी मे सम्पूर्ण चिकित्सा की सफलता एव सार्थकता निहित है। जैनधर्म मे भी प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। अतः दोनों मे उद्देश्य साम्य का भाव स्पष्टतः लक्षित होता है। भूतदया को आयुर्वेद मे निम्न प्रकार से परम धर्म माना गया है - परोभूतदया धर्म इति मत्वा चिकित्सा। . वर्ततेः य सः सिद्धार्थः सुखमत्यन्तमश्नुते।। __-चरकसंहिता, चिकित्सा स्थान १/४/६५ अर्थात् प्राणियो पर दया करना उत्तम धर्म है-ऐसा मानकर चिकित्सा मे जो प्रवृत्त होता है वह सफल मनोरथ अत्यन्त (अत्यधिक) सुख को प्राप्त करता है। इसी प्रकार का भाव आयुर्वेद मे अन्यत्र भी प्रतिपादित है जो दृष्टव्य हैमैत्री कारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम्। प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा।। -चरकसंहिता, सूत्रस्थान ९/२६

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