________________
अनेकान्त/३०
अर्थात् भयंकर रोगों द्वारा यमपुरी की ओर बलात् ले जाते हुए प्राणियो के प्राण को जो वैद्य यमराज के पाशों को काटकर बचा लेता है उसके समान धर्म-अर्थ को देने वाला इस जगत् मे दूसरा कोई नहीं पाया जाता है। क्योंकि जीवनदान से बढ़कर कोई दूसरा दान नहीं है। अर्थात् सभी प्रकार के दानों में जीवन (प्राण) का दान करना (बचाना) सबसे बड़ा दान बतलाया गया है। जैनधर्म मे प्राणदान को अभयदान की संज्ञा दी गई है। वैद्य के द्वारा चूंकि रोगी को जीवन दान मिलता है, इसीलिए ससार में धर्म और अर्थ को देने वाला सबसे बड़ा वैद्य ही है।
आयुर्वेद शास्त्र के प्रस्तुत उद्धरण से स्पष्ट है कि आयुर्वेद मे जीवनदान को कितना विशिष्ट माना गया है। उसके अनुसार जीवनदान से बढ़कर कोई दूसरा दान नही है। जीवनदान मे जहाँ परहित का भाव निहित है वहाँ वैद्य का उच्चतम आदर्श भी प्रतिबिम्बित होता है। दूसरो के प्राणों की रक्षा करना जैन सस्कृति का मूल है, क्योंकि इसी मे लोक कल्याण की उत्कृष्ट भावना निहित है। इस दृष्टि से जैनधर्म और आयुर्वेद की निकटता सुस्पष्ट है। परहित की पावन-भावना से प्रेरित होने के कारण इस आयुर्वेद शास्त्र मे जहाँ दूसरो की प्राण रक्षा को विशेष महत्व दिया गया है वहा अजीविका के साधन के रूप में इसे अपनाए जाने का पूर्ण निषेध किया गया है। वर्तमान समय मे यद्यपि आयुर्वेद का अध्ययन और अध्यापन पूर्णत. स्वार्थ प्रेरित होकर आजीविका के निमित्त से किया जाता है। अब तो यह आजीविका के साधन के अतिरिक्त पूर्णत व्यापारिक रूप को धारण कर चुका है जो आयुर्वेद चिकित्सा के उच्चादर्शो के सर्वथा प्रतिकूल है। महर्षि चरक ने आयुर्वेद चिकित्सा के जो उच्चादर्श प्रतिपादित किए है वे उभय लोक हितकारी होने से निश्चय ही अनुकरणीय है और जैनधर्म की दृष्टि से अनुशसति है। उन आदर्शो मे प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते हुए नि स्वार्थ भाव से चिकित्सा करने की प्रेरणा दी गई है। यथा -
धर्मार्थ नार्थकामार्थमायुर्वेदो महर्षिमिः। प्रकाशितो धर्मपरिच्छद्भिः स्थानमक्षरम्।।