________________
अनेकान्त/२८
प्रेरित होकर ही किया जाना चाहिये। तब ही वह धर्माचरण माना जा सकता है और तब ही उसके द्वारा पापों (अशुभ कर्मो) का नाश एवं धर्म की अभिवृद्धि होकर आत्मा के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
पापों का विनाशक होने के कारण जैनाचार्यों ने चिकित्सा को उभयलोक का साधन निरूपित किया है। चिकित्सा कार्य भी एक प्रकार की साधना है, जिसमें सफल होने पर रोगी को कष्ट से मुक्ति और चिकित्सक को यश और धन के साथ-साथ पुण्य फल की प्राप्ति होती है। श्री उग्रादित्याचार्य ने चिकित्सा कर्म की प्रशसा करते हुए लिखा है -
चिकित्सितं पापविनाशनार्थं चिकित्सितं धर्मविवृद्धये च। चिकित्सितं चोभयलोकसाधनं चिकित्सितानास्ति परं तपश्च।।
-कल्या कारक २/३२ अर्थात् रोगियों की चिकित्सा पापो का विनाश करने के लिए तथा धर्म की अभिवृद्धि करने के लिए की जानी चाहिये । चिकित्सा के द्वारा उभय लोक (यह लोक और परलोक दोनो) का साधन होता है। अत चिकित्सा से अधिक श्रेष्ठ कोई और तप नही है। __ चिकित्सा का उद्देश्य मुख्यत परहित की भावना होना चाहिये । इस प्रकार की भावना वैद्य के पूर्वोपार्जित कर्मो का क्षय करने मे कारण होती है। अन्य किसी प्रकार के स्वार्थ भाव से प्रेरित होकर किया गया चिकित्सा कर्म आयुर्वेदशास्त्र के उच्चादर्शो से सर्वथा विपरीत है। चिकित्सा के उच्चतम आदर्शमय उद्देश्य के पीछे निम्न प्रकार का स्वार्थ भाव सर्वथा गर्हित बतलाया गया है -
तस्माच्चिकित्सा न च काममोहान्न चार्थलाभान्न च मित्ररागात्। न शत्रुरोषान्न च बंधुबुद्धया न चान्स इत्यन्यमनोविकारात्।। न चैव सत्कारनिमित्ततो वा न चात्मनः सद्यशसे विधेयम। कारूण्यबुद्धया परलोकहेतौ कर्मक्षयार्थ विदधीत विद्वान्।।
-कल्याण कारक ७/३३-३४