Book Title: Anekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 146
________________ अनेकान्त/२७ है। बाह्य कारण के रूप में प्रयुक्त औषधोपचार को ही चिकित्सा कहा जाता है, जबकि आभ्यन्तर कारण के रूप में सेवित धर्म को धर्माचरण ही माना जाता है। किन्तु चिकित्सा के अन्तर्गत धर्म का भी उल्लेख होने से उसे सात्विक चिकित्सा के रूप में स्वीकार किया गया है। रोगापशमनार्थ बाह्य और आभ्यन्तर चिकित्सा के रूप मे धर्म आदि की कारणता निम्न प्रकार से बतलाई गई है धर्मस्तथाभ्यन्तरकारणं स्याद्रोगप्रशान्त्यै सहकारी पूरम्। बाह्यं विधानं प्रतिपद्यतेऽत्र चिकित्सितं सर्वमिहोभयात्म।। -कल्याण कारक ७/३० अर्थात् रोगो की शान्ति के लिए धर्म आभ्यन्तर कारण होता है, जबकि बाह्य चिकित्सा सहकारी पूरक कारण होता है। अत. सम्पूर्ण चिकित्सा बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार की होती है। चिकित्सा कर्म के द्वारा लोगो के व्याधिजनित कष्ट का निवारण ही नही होता है, अपितु कई बार भीषण दु साध्य व्याधि से मुक्त हो जाने के कारण जीवनदान भी प्राप्त होता है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे गए है जिनसे ज्ञात होता है कि कई व्यक्ति अपनी व्याधि की भीषणता एवं जीर्णता के कारण अपने जीवन से निराश हो गए थे, जिन्हे अपना जीवन बचने की कोई आशा नही थी उन्हें समुचित चिकित्सोपचार द्वारा रोग से छुटकारा मिला तो उन्होने अनुभव किया कि उन्हे जीवनदान ही नही मिला, अपितु नवीन जीवन प्राप्त हुआ । इस प्रकार चिकित्सा के द्वारा लोगो को स्वास्थ्य लाभ पहुंचाकर जीवन निर्वाह का अवसर प्रदान करना अतिशय पुण्य का कार्य है। किन्तु इसमे एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जो चिकित्सा की जाती है उसके मूल मे परोपकार और नि स्वार्थ की भावना कितनी है? इस पर पुण्य की मात्रा निर्भर है। क्योंकि धन के लोभ से स्वार्थवश किया गया चिकित्सा कार्य पुण्य के हेतु नहीं माना जा सकता। धनलिप्सा के कारण वह लोभवृत्ति एव परिग्रह वृत्ति का परिचायक है। ये दोनों ही भाव अशुभ कर्म के बन्ध का कारण माने गए है। अत ऐसी स्थिति मे वह परलोक के सुख का कारण कैसे बन सकती है? चिकित्साकार्य वस्तुत अत्यन्त पवित्र कार्य है और वह परहित की भावना से

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